________________ . रत्नकरण्डके कर्तृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय 437 इन पद्योंमें कुछ नाम तो समान अथवा समानार्थक है और कुछ एक दूसरेसे भिन्न है, और इससे यह स्पष्ट सूचना मिलती है कि परमात्माको उपलक्षित करनेवाले नाम तो बहुत है, ग्रन्यकारोंने अपनी-अपनी रुचि तथा प्रावश्यकताके मनुसार उन्हें अपने-अपने ग्रन्थमें यथास्थान ग्रहण किया है। समाधितंत्र-ग्रन्थके टीकाकार भाचार्य प्रभाचन्द्रने, 'तद्वाचिका नाममालां दर्शयन्नाह' इस प्रस्तावनावाक्यके द्वारा यह सूचित भी किया है कि इस छठे श्लोकमें परमात्माके नामकी वाचिका नाममालाका निदर्शन है। रत्नकरण्डकी टीकामें भी प्रभाचन्द्राचार्यने 'प्राप्तस्य वाचिका नाममालां प्ररूपयन्नाह' इस प्रस्तावना-वाक्यके द्वारा यह सूचना की है कि ये पद्य में प्राप्तको नाममालाका निरूपण है / परन्तु उन्होंने साथमें प्राप्तका एक विशेषण 'उक्तदोविजितस्य' भी दिया है, जिसका कारण पूर्व में उत्सन्नदोषकी दृष्टि में प्राप्तके लक्षगात्मक पद्यका होना कहा जा सकता है; अन्यथा बह नाममाला एकमात्र 'उत्मन्नदोषप्राप्स' की नहीं कही जा सकती; क्योंकि उसमें 'परंज्योति' और 'मवंज' जमे नाम मर्वज्ञ प्राप्तके, 'माव:' भोर 'शास्ता' जैसे नाम प्रागमेगी (परमहिनोपदेशक ) प्राप्तके स्पष्ट वाचक भी मौजूद है। वास्तव में वह प्राप्तके तीनों विशेषरणोंको लक्ष्यमें रखकर ही संकलित की गई है. और इसलिये 7 पद्यकी स्थिति ५वें पद्यके अनन्नर ठीक बैठ जाती है, उसमें प्रसंगति जैसी कोई भी बात नहीं है। ऐसी स्थितिमें वें पद्यका नम्बर 6 होजाता है और तब पाठकोंको यह जानकर कुछ प्राश्चर्यमा होगा कि इन नाममालावाने पचोंका तीनों ही प्रन्थोंमें छठा नम्बर पड़ना है, जो किसी पाकस्मिक अथवा रहस्यमय घटनाका ही परिणाम कहा जा सकता है। इस तरह छठे सके प्रभावमें जब 7 वा पद्य प्रसंगत नहीं रहता तब ८वां पच असंगत हो ही नहीं सकता, क्योंकि वह ७वें पदमें प्रयुक्त हुए 'विराग, और 'शास्ता' जैसे विशेषण-पदोंके विरोधकी शंकाके समाधानरूपमें है / इसके सिवाय, प्रयत्न करने पर भी रत्नकरण्डकी ऐसी कोई प्राचीन प्रतियां मुझे अभी तक उपलब्ध नहीं हो सकी हैं, जो प्रभाचन्द्रकी टीकासे पहलेकी प्रपा विक्रमकी 11 वीं शताब्दीकी या उससे भी पहलेकी लिखी हुई हों। अनेकवार कोल्हापुरके प्राचीनशास्त्रमण्डारको टटोलनेके लिये डा० ए० एन०