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________________ 436 : जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश "(छठे पद्यके संदिग्ध होनेपर ) ७वें पद्यकी संगति प्राप किस तरह विठलाएंगे और यदि 73 की स्थिति संदिग्ध होजाती है तो ८वा पच भी अपने माप संदिग्धताकी कोटिमें पहुँच जाता है।" "यदि पद्य नं०६ प्रकरणके विरुद्ध है, तो 7 प्रौर 8 भी संकटमें ग्रस्त हो जायेगे।" "नं०६ के पचको टिप्पणीकारकृत स्वीकार किया जाय तो मूलगन्धकारद्वारा लक्षणमें 3 विशेषरण देखकर भी 7-8 में दोका ही समर्थन या स्पष्टीकरण किरा गया पूर्व विशेषणके सम्बन्धमें कोई स्पष्टीकरण नहीं किया यह दोषापत्ति होगी।" __ इन तीनों प्राशंकामों अथवा प्रापसियोंका प्राशय प्राय: एक ही है और वह यह कि यदि छठे पचको प्रसंगत कहा जावेगा तो 7 वें तथा 8 वें पचको भी प्रसंगत कहना होगा / परन्तु बात ऐसी नहीं है / छठा पच अन्यका अग न रहने पर भी 7 वें तथा 8 पद्यको प्रसंगत नही कहा जा सकता; क्योंकि वे पद्यमे सर्वजकी, मागमेशीकी अथवा दोनो विशंपरगोंकी व्याख्या या स्पष्टीकरण नहीं है, जैसाकि अनेक विद्वानोने भिन्न-भिन्न रुपमे उसे समझ लिया है। उसमें तो उपलक्षणरूपसे प्राप्तकी नाम-मालाका उल्लेख है, जिसे 'उपलाल्यते' पदके द्वारा स्पष्ट घोषित भी किया गया है, और उसमें प्राप्तके तीनों ही विशेषणोंको लक्ष्यमें रखकर नामोंका यथावश्यक भंकलन किया गया है। इस प्रकारको नाम. माला देनेकी प्राचीन समयमें कुछ पति जान पड़ती है, जिसका एक उदाहरण पूर्ववर्ती प्राचार्य कुन्दकुन्दके 'मोक्खपाहुड' में और दूसरा उत्तरवर्ती प्राचार्य पूज्यपाद ( देवनन्दी) के समाधितंत्र' में पाया जाता है। इन दोनों ग्रन्थोंमे परमात्माका स्वरूप देनेके अनन्तर उसकी नाममालाका जो कुछ उल्लेख किया है वह ग्रन्थ-कमसे इस प्रकार है "मनरहिओ कहाचतो अणिदिनो केवलो विसुद्धप्पा / परमेट्ठी परमनिणो सिर्वकरो सासमो सिद्धी // 6 // " "निर्मलः केवलः शुतो विविक्त: प्रमुरम्ययः / परमेष्ठी परात्मेति परमात्मेश्वरो जिनः // 6."
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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