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________________ रत्नकरण के कर्तृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय 435 वरिणत पासके तीन विशेषणों मेंसे 'उरसन्न-दोष' विशेषणके स्पष्टीकरण अथवा व्याख्यादिको लिये हुए है / और उस सूचनादि परसे यह पाया जाता है कि वह उनके सरसरी विचारका परिणाम है-प्रश्न के अनुरूप विशेष ऊहापोहसे काम नहीं लिया गया प्रथवा उसके लिये उन्हें यथेष्ट अवसर नहीं मिल सका / चुनांचे कुछ विद्वानोंने उसकी मूचना भी अपने पत्रों में की है जिसके दो नमूने इस प्रकार है "रत्नकरण्डश्रावकाचारके जिस श्लोकको भोर मापने ध्यान दिलाया है। उसपर मैंने विचार किया मगर मैं अभी किसी नतीजेपर नहीं पहुँच सका। इलोक 5 में उच्छिन्नदोष, सनंज पोर प्रागमेशीको प्राप्त कहा है, मेरी दृष्टिमें उच्छिन्नदोष की व्याख्या एवं पुष्टि श्लोक 6 करता है और भागमेशीकी व्याख्या लोक करता है। रही सर्वशता, उसके सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा है इसका कारण यह जान पड़ता है कि प्राप्तमीमांसामें उसकी पृथक विस्तार से चर्चा की है इमनिये उसके सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा / श्लोक 6 में यद्यपि सब दोष नहीं प्राते, किन्तु दोषों की संख्या प्राचीन परम्परामें कितनी थी यह खोजना चाहिये। इनोककी शब्दरचना भी समन भद्रके अनुकूल है, अभी पौर विचार करना चाहिये।" ( यह पूरा उत्तर पत्र है)। ''इस समय बिल्कुल फुरमतमें नहीं हैं...... यहां तक कि दो तीन दिन बाद प्रापके पत्रको पूरा पढ़ सका / ...... पद्य के बारेमें अभी मैंने कुछ भी नहीं मोचा था, जो समस्यायें प्रापने उसके बारे में उपस्थित की है वे प्रापके पत्रको देखने के बाद ही मेरे सामने पाई है, इलिये इसके विषय में जितनी गहराईके साथ माप सोच सकते है मै नही, और फिर मुझे इस समय गहराईके साय निश्चित होकर सोचनेका अवकाश नही इमलिये जो कुछ में लिख रहा हूँ उसमें कितनी दृढता होगी यह मैं नहीं कह सकता फिर भी माशा है कि पाप मेरे विचारों पर ध्यान देंगे।" हाँ, इन्हीं विद्वानों से सीनने के पचको संदिग्ध प्रभा प्रक्षिप्त करार दिये जाने पर अपनी कुछ शंका प्रथवा चिन्ता भी व्यक्त की है, जो इस प्रकार है
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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