________________ 434 . जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश परिहारका कोई खास प्रयत्न नहीं था, जैसा कि प्रो० साहाने समझा है बल्कि उसका प्रधान लक्ष्य अपने लिये इस बातका निर्णय करना था कि 'समीचीन धर्मशास्त्र में जो कि प्रकाशनके लिये प्रस्तुत है, उसके प्रति किस प्रकारका व्यवहार किया जाय-उसे मलका पङ्ग मान लिया जाय या प्रक्षिप्त / क्योंकि रत्नकरण्डमें 'उत्सन्नदोष प्राप्त' के लक्षणरूपमें उसकी स्थिति के स्पष्ट होनेपर अथवा 'प्रकोत्यंते' के स्थानपर 'प्रदोपमुक' जमे किसी पाठका प्राविर्भाव होनेपर में प्राप्तमीमांसाके साथ उसका कोई विरोध नहीं देखता हूँ। और इसी लिये तत्सम्बन्धी अपने निर्णयादिको उस समय पत्रों में प्रकाशित करने की कोई जरूरत नहीं समझी गई, वह सब समीचीनधर्मशास्त्रकी अपनी प्रस्तावनाके लिये सुर. भित रखा गया था। हाँ, यह बात दूसरी है कि उक्त 'क्षुत्पिपासा' नामक पद्यक प्रक्षिप्त होने अथवा मूल ग्रन्थका वास्तविक अंग मिद्ध न होनेपर प्रोफेसर साहवकी प्रकृत-चर्चाका मूलाधार ही समाप्त हो जाता है; क्योंकि रत्नकरण्डक इम एक पद्यको लेकर ही उन्होने प्राप्तमीमामा-गत दोष-स्वरूपके साथ उसके विरोधकी कल्पना करके दोनों ग्रन्यांक भिन्न-पतृत्वकी चर्चाको उठाया थामेष तीन आपत्तियां तो उसमें बादको पुष्टि प्रदान करने के लिये शामिल होनी रही है / और इम पुष्टिमे प्रोफसर माहबने मरे उम पर पणादिको यदि अपनी प्रथम आपत्ति के परिहार का एक विशेष प्रयत्न ममझ लिया है तो वह स्वाभाविक है, उसके लिये में उन्हें कोई दोष नही देना / मैने प्रानी दृष्टि और स्थितिका स्पष्टीकरण कर दिया है। मेरा उक्त पत्र जिन विद्वानों को भेजा गया था उनमेंमे कुछका तो कोई उनर ही प्राप्त नहीं हुग्रा, कुछने मनवकागादिके कारण उतर देने में अपनी असमर्थता व्यक्त की, कुछ ने अपनी सहमति प्रकट की और शेषने असहमति / जिन्होंने महमति प्रकट की उन्होंने मेरे कयनको 'बुद्धिगम्य नकंपूर्ण तथा युक्तिवादको 'निप्रबल' बतलाते हुए उक्त छठे पद्यको संदिग्धम्पमें नो स्वीकार किया है; परन्तु जब तक किसी भी प्राचीन प्रतिमें उसका प्रभाव न पाया जाय तब तक उसे 'प्रक्षिप्त' कहने में अपना संकोच व्यक्त किया है। पौर जिन्होंन असहमति प्रकट की है। उन्होंने उक्त पचको पन्यका मौलिक अंग बवलाते हुए उसके विषयमें प्राय: इतनी ही सूचना की है कि वह पूर्व-पथमें