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________________ रत्नकरण्डके कर त्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय 433 अपने वर्तमान लेखमें प्रो० साहबने मेरे दो पत्रों और मुझे भेजे हुए अपने एक पत्रको उद्धृत किया है / इन पत्रोंको प्रकाशित देख कर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई-उनमेसे किसी भी प्रकाशनसे मेरे कद होने जैसी तो कोई बात ही नहीं हो साती थी, जिसकी प्रोफेसर साहबने अपने लेखमें कल्पना की है; क्योंकि उनमें प्राइवेट जैसी कोई बात नहीं है, मैं तो स्वयं ही उन्हें 'समीचीनधर्मशास्त्र की अपनी प्रस्तावनामें प्रकाशित करना चाहता था-चुनाचे लेखके साथ भेजे हुए पत्रके उत्तरमें भी मैंने प्रो० साहवको इस बातकी सूचना करदी थी। मेरे प्रथम पत्र को, जो कि रत्नकरण्डके 'क्षुत्पिपासा' नामक छठे पथके सम्बन्धमें उसके ग्रंथका मौलिक भंग होने-न-होने-विषयक गम्भीर प्रश्नको लिये हुए है, उद्धत करते हुए प्रोफेसर माहबने उसे अपनी 'प्रथम प्रापनिके परिहारका एक विशेष प्रयत्न' बतलाया है. उममें जो प्रश्न उठाया है उसे 'बहुत ही महत्वपूर्ण' तया रत्नकरण्डके कर्तृत्वविषयमे बहन घनिष्ठ सम्बन्ध रखनेवाला घोषित किया है और 'तीनों ही पत्रों को अपने लेख में प्रस्तुत करना वर्तमान विषयक निर्णयार्थ प्रत्यन्त प्रावश्यक मूचित किया है। साथ ही मुझसे यह जानना चाहा है कि मैंने अपने प्रथम पत्रके उत्तर में प्राप्त विद्वानोंके पत्रों मादिक प्राधारपर उन पद्यक विषयमें मूलका अंग होने. न-होने की बाबत प्रौर ममूने ग्रन्थ ( रत्नकरपट ) के कर्तृत्व विषयमें क्या कुछ निर्णय किया है / इमी निजामाको, जिमका प्रो० मा० के शब्दों में प्रकृत-विषयमे व रखनेवाले दूसरे हृदयों में भी उत्पन्न होना स्वाभाविक है, प्रधानतः लेकर ही में इस लेख लिखने में प्रवृत हो रहा है। ___ सबमे पहने में मग्ने पाठकों को यह बतला देना चाहता हूं कि प्रस्तुन चर्चा बादी-प्रतिवादी रूपमें स्थित दोनों विद्वानोंके लेखोंका निमिन पाकर मेरी प्रवृत्ति रस्नकरण्डके उक्त छठे पचपर सविशेषणरूपसे विचार करने एवं उसकी स्थितिको जॉबनेकी पोर हुई और उसके फलस्वरूप ही मुझे बह दृष्टि प्राप्त हुई जिसे मैंने अपने उस पत्रमें व्यक्त किया है जो कुछ विद्वानोंको उनका विवार मार्य करने के लिये भेजा गया था-पोर जिसे प्रोफेसर साहबने विशेष महत्त्वपूर्ण एवं निर्णयापं मावश्यक समझकर अपने वर्तमान मेसमें उपत किया है। निदानोंको उक्त पत्रका भेगा जाना पोफ़ेर साहबकी परम पतिके
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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