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________________ 432 . जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश मिला। यह सब यदि न हो पाता तो ज्यादह अच्छा,रहता। फिर भी इसमें संदेह नहीं कि दोनों विद्वानोंने प्रकृत विषयको सुलझाने में काफ़ी दिलचस्पीमे काम लिया है और उनके अन्वेषणात्मक परिश्रम एवं विवेचनात्मक प्रयत्नके फलस्वरूप कितनी ही नई बातें पाठकोंके सामने प्राई है। अच्छा होता यदि प्रोफेसर साहब न्यायाचार्यजीके पिछने लेखकी नवोद्भावित-युक्तियोंका उत्तर ईते हुए अपनी लेखमालाका उपसंहार करते. जिससे पाठकों को यह जाननका अवसर मिलता कि प्रोफेसर साहब उन विशेष नियोंके सम्बन्ध में भी क्या कुछ कहना चाहते है। हो सकता है कि प्रो० सा के मामने उन युक्तियों के सम्बन्धमें अपनी पिछली बातोंके रिपेषण के सिवाय अन्य कुछ विशेष एवं समुचित कहने के लिए प्रवशिष्ट न हो और इमलिए उन्होंने उनके उभरमें न पड़कर अपनी उन चार प्रापनियों को ही स्थिर घोषित करना उचित समझा हो. जिन्हे उन्होंने अपने पिले लेख ( अनेकान्त वर्ष : किरण 3) के अन्त में प्रपनो युनियोंके उपसंहार में प्रकट किया था। और मभवत. इमी बातको दृष्टिमं रखते हा उन्होंने अपने वर्तमान लेनमें निम्न वाक्यों का प्रयोग किया हो:-- "इम विषयार में जैन इनिजाम का एक घिनुन अध्यायनीक निबन्ध लगाकर अभीतक मेरे और पं० दरबारीलालजी कोठिया रदह मेख प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें उपलब्ध मावक-वाचक प्रमागाका विवेचन frजानुका है। 'अब कोई नई बात मन्मुष मानेकी प्रोक्षा रिप्टपेरण ही अधिक होना प्रारम्भ हो गया है मौलिकता केबल कट गानों के प्रोगमें जी रह गई है।" (आपनियोंके नगल्लेबानन्तर ) "दम प्रकार करण्यासाचार और प्राप्तमीमांसाके एक कर्तृत्व के विरुद्ध पूऑक्त चारों प्रापनियां बांकी न्यों प्राज भी खड़ी है, और कुछ उहापोह अबतक हमा है उसमें वे पोर भी प्रमख व प्रकाटप सिद्ध होती है। - कुछ भी हो और दूसरे कुछ ही समझते रहे, परन्तु इतना सार है कि प्रो० साहब पानी उस चार प्रापसियोंमें किमीका भी पर न ममाधान अथवा समुचित प्रतिवाद हुमा नहीं मान्ने; कि वर्नमा उहापोहके कलाकार उन्हें में और भी प्रबल एपकोटय समझने ममेत प्रस्तु- T .
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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