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________________ रत्नकरण्डके कर्तृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय 476 शब्दोमेंसे किसीका प्रयोग नहीं बनता और इसलिये 'वीतकलंक' शब्दका प्रयोग श्लेषार्थ के लिये अथवा द्राविडी प्राणायामके रूपमें नहीं है जैसा कि प्रोफेसर साहब समझते है / यह बिना किसी श्लेषार्थकी कल्पनाके ग्रन्थसन्दर्भके साथ मुसम्बद्ध और अपने स्थानपर सुप्रयुक्त है। ___ अब मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूं कि ग्रन्थका अन्तःपरीक्षण करनेपर उसमें कितनी ही बातें ऐमी पाई जाती है जो उसकी अति प्राचीनताकी द्योतक है, उमके कितने ही उपदशों-प्राचारों, विधि-विधानों अथवा कियाकाण्डोंकी तो परम्परा भी टीकाकार प्रभाचन्द्रके समयमें लुप्त-हुई-मी जान पड़ती है, इमीमे वे उनपर यथेष्ट प्रकाश नहीं डाल सके और न बादको ही किसी के द्वारा वह डाला जा सकता है; जैसे 'मूर्ध्वम्ह-मुष्ठि-बासो-बन्ध' और 'चतुरावतंत्रितय' नामक पद्यों में वर्गिगत प्राचार की बात / अप्ट-मूल गुणोंमें पञ्च अणुव्रतोंका समावेश भी प्राचीन परम्पराका द्योतक है, जिसमे समन्तभद्रमे शताब्दियों बाद भारी परिवर्तन हुआ और उसके अणुव्रतोंका स्थान पञ्चदम्बरफलोंने ले लिया / एक चाण्डालपत्रको 'देव' अर्थात् अाराध्य बतलाने और एक गृहस्थको मुनिसे भी श्रेष्ठ बतलाने जैसे उदार उपदेश भी बहुत प्राचीनकालके संसूचक है, जब कि देश और समाजका वातावरण काफी उदार और सत्यको ग्रहण करनेमे सक्षम था। परन्तु यहाँ उन सब बातोंके विचार एवं विवेचनका अवसर नहीं है-वे तो स्वतन्त्र लेखके विषय है, अथवा अवसर मिलनेपर 'ममीचीन-धर्मशास्त्र' की प्रस्तावनामे उनपर यथेष्ट प्रकाश डाला जायगा / यहाँ मै उदाहरणके तौरपर मिर्फ दो बातें ही निवेदन कर देना चाहता हूं और वे इस प्रकार है (क) रत्नकरण्डमें सम्पग्दर्शनको तीन मूढतानों से रहित बतलाया है और उन मृढतामोंमें पाखण्डिमूढताका भी समावेश करते हुए उसका जो स्वरूप दिया है ___ इंम विषयको विशेषतः जानने के लिये देखो लेखकका 'जैनाचार्योका शासन भेद' नामक ग्रन्यं पृष्ठ 7 से 15 / उसमें दिये हुए 'रत्नमाला' के प्रमाणपरसे यह भी जाना जाता है कि रत्नमालाकी रचना उसके बाद हुई है जबकि मूलगुरषों में अणुव्रतोके स्थानपर पञ्चोदम्बरकी कल्पना रूढ होचुकी थी और इस लिये भी वह रत्नकरण्ड से शताब्दियों बादकी रचना है। . .
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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