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________________ 480 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकारा वह इस प्रकार है समन्थाऽऽम्म-हिंसानां संसाराऽऽवर्त-वर्तिनाम् / पाखण्डिनां पुरस्कारो शयं पाखडि-मोहनम् // 4 // ___जो सपन्थ है-धन-धान्यादि परिग्रहसे युक्त है-,प्रारम्भ सहित है - कृषि-वाणिज्यादि सावयकम करते है--हिमामें रत है और संसारके प्रायमि प्रवृत हो रहे है-भवभ्रमण में कारणीभूत विवाहादि कोदाग दुनियाके चकर अथवा गोरखधन्धे में फंसे हुए है, ऐसे पाखण्डियों का-वस्तुतः पापके खण्डन में प्रवृत्त न होनेवाले लिगी मानुषोंका जो ( पाखण्डीके का पथवा मा-गुरु बुद्धि मे) मादर-सत्कार है उसे 'पाण्डित्र' समझना चाहिए।' इमपरसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि रत्नकरण प्रत्यकी रचना उम समय हई है जबकि 'पाखण्डीशन्द पपने मूल प्रमे-पाप बयतीति पावती' इस नियुक्ति के अनुमार -पापका वणन करने के लिए प्रवृन हग नाम्बी माधुपीके लिये मामतौरपर व्यवहृत होता था, चाहे व सा समार हों या परमन के चनांचे मूलबार (म. 5) में 'रसरगताम्मपरिहत्तादीयग्रहमपामंडा' वाक्यके द्वारा रसपटादिक मापोंको अन्यमनके पायमो बतलाया है, जिमम माफ़ ध्वनित है, कि तब स्वमत (जेनो) के तपस्वी साधु भी पाबी क.. लाते थे। और इसका समर्थन कुन्दकुन्धावायं ममयमार प्रन्यकी शिवसिंगाणिव गिलिगाणिय बहुपयारगियादि माया न. 108 प्रामा भी होता है, जिनमें पावडीलिगको पनगार-माधुमो (निपंवार नियो) ! लिंग बनमाया है। परन्तु पावसी' गमके अपंकी यह स्थिति मात्रम : दशों शतानियों पहनेमे बान पुकी है। प्रोर तब यह 'मम प्राय: . अपना दम्मी-कपटी' जैसे विकत पाहाहा पाहामा रखकरके उक्त पचमें प्रयुक हुए पानमित' शब्द के माष गई म नहीं है। यही 'गरी समके प्रयोगको यति , मीकपटी पा भोमिया) साधु सय मिया बाप. जैसा कि न. गारको प्रमश माधुनिक दृष्टिसे में लिया है, तो पंग न हो भाव और पानी-मोहनम' पर पापा शामिद मक और प्रबर हरे / गोंकि इस परका पर्व -पाशा
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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