________________ रत्नकरण्डके कर्तृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय 481 विषयमें मूठ होना' अर्थात् पाखण्डीके वास्तविक स्वरूपको न समझकर अपाखणियों अथवा पाखण्डघाभासोंको पाखण्डी मान लेना और वैसा मानकर उनके साथ तद्रूप प्रादर-सत्कारका व्यवहार करना / इस पदका विन्यास पन्यमें पहलेमें प्रयुक्त वनामूढम्' पदके समान ही है, जिसका प्राशय है कि 'जो देवता नहीं है-रागढ़ पमे मलीन देवनाम.म है-उन्हें देवता समझना और वैसा समझकर उनकी उपासना करना / ऐसी हालनमें पाखडिन्' भन्दका प्रथं 'धूनं' जमा करनेपर इस पदका ऐमा प्रथ हो जाता है कि धूनकि विषयमे मूड होना अर्थात् जो भूनं नहीं है उन्हें धनं ममझना और वैमा ममझकर उनके माप मादर-सत्कार का व्यवहार करना' और यह प्रथं किमी तरह भी संगत नहीं कहा जा सकना / प्रतः सना में 'पावदिन' द अपने मूल पुगतन अयं में ही व्यवहुन हुमा है, इममे जग भी मदद के लिये स्थान नहीं है। इम पथ की विकृति विक्रम म. 8 पहले हो नुकी थी और वह धूनं जमे प्रयं में व्यवहृत होने लगा था इसका पता उक्त सवन् अथवा वोर्गनवांगण म० 1.8 में बनकर ममाप्त हा श्रीर. विग्णाचार्य-कृत पपरितकनिम्न वाक्यमे चलना है-जिसमें भरन चक्रवर्गीक प्रति यह कहा गया है कि नि। ब्रह्मगोको मष्टि प्रापने की है. वे वर्द्धमान जिनेन्द्रका निर्माण के बाद कनियुगमे महाउद्धन पावडी हो जायेगे। पौर अगले में उन्हें 'महा पापति गोयना: विशेषण भी दिया गया है - वर-मान-जिनम्याऽन्ने भविष्यन्त वली यंगे। से ये भघता मष्टा: पास्वरिडना महाचताः // 4-19311 मी हालत में सलकर की रचना उन विद्यानन्द प्राचार्य के वादको नही हो मकी जिनका समय प्रो. माहबने. मन विक गंवत् 2) बगभग बतलाया है। +पासडोन वास्तविक या वही है जिसे प्रत्यकार मांदवन नगरी' के निम्न सबमें समाविष्ट किया है। महो वी मा पापोका बन करने में समर्थ होते है: विपाशा-मामीनो निगराभांजरिग्रहः / शान-ध्यान-तपोरक्तस्तपस्वी स प्रसस्यते // 1 //