________________ 482 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश (ख) रत्नकरंड में एक पद्य निम्न प्रकारसे पाया जाता है गृहतो मुनिवनमित्वा गुरूपकण्ठे व्रतानि परिगृह्य / भैयाऽशनस्तपस्यन्नुत्कृष्टश्चेल-खण्ड-धरः / / 147 // इसमें, 11 वी प्रतिमा ( कक्षा) स्थित उत्कृष्ट श्रावकका स्वरूप बतलाते हुए, घरसे 'मुनिवन' को जाकर गुरुके निकट व्रतोंको ग्रहण करनेकी जो बात कही गई है उसमे यह स्पष्ट जाना जाता है कि यह ग्रन्थ उम ममय बना है जब कि जैन मुनिजन मामलोग्पर वनोमे रहा करते थे-वनों में ही यन्याश्रम प्रतिष्ठित ये-पोर वही जाकर गुरु (माचार्य) के पाम उत्कृष्ट श्रावकपदको दीक्षा ली जानी थी। और यह स्थिति उम ममपकी है जबकि चन्धवाम-मन्दिरमठोंमें मुनियों का प्रामौर पर निवाग--प्रारम्भ नहीं हुप्रा था। चत्यवाय विक्रमकी थी. वी शताब्दी में प्रतिष्ठित हो चुका था-या उममा प्रारम्भ उममें भी कुछ पहले हमा था--मा तद्विपयक इतिहामगे जाना जाता है। प० नायूगमजी प्रेमी के 'बनवामी पौर चंन्यवामी मम्प्रदाय' नामक निबन्धमे भी दम विषयपर कितना ही प्रकार पडता है . और इस निय भी रनकर गडकी रचना विद्यानन्द प्राचार्य बादकी नहीं हर मकनी पोरन उम रम्नमालाकार के मममामयिक प्रयवा उमके गुरुकी कृति हो सकती है जो पायोमें जैन मुनिया लिये बनवायला निगध कर रहा है-उमे उनम मुनियों द्वारा जिन बनना रहा है-पोर न्यबाममा खुना पोषण कर रहा है। वह तो उसी स्वामी ममनभद्रको कृति होनी चाहिए जो प्रमिद वनमामी थे, जिन्हें प्रोफमर मारकन देवनाम्बर पदावनियोंक प्रापार वनवामी र प्रगना महके प्रमाण 'मामन्नभद्र' लिम्बा है जिनका वेताम्बर-मान्य समय भी दिगम्बर-मान्य ममः (विक्रमी दमननादी) प्रनान है और जिनका प्राप्तमीमामा एकल मानने में प्रो. मा को को पानि भी नही। ग्वाइन मब उसमोसी रोगनीम प्रो: मानकी चौथी प्रा. * जैन मारिन्योर इतिहाग पृ. 24 मे +कलो काले बने वामो वयं ने मूनिमनमः / स्थापित च निागारे प्रामाणि यिन: --म्नमामा