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________________ रत्नकरण्ड के कई व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय 483 पौर भी नि:मार एवं निस्तेज हो जाती है और उनके द्वारा ग्रन्यके उपान्त्य पद्यमें की गई श्लेपार्थकी उक्त कल्पना बिल्कुल ही निमूल ठहरती है-उसका कहीसे भी कोई ममर्थन नहीं होता। रन्न करगर के ममयको जाने-अनजाने रत्नमालाके रचनाकाल (विक्रमकी 11 वी शताब्दी के उनगधं या उसके भी वाद ) के समीप लाने का प्राग्रह करनेपर यानिलक के अन्तर्गत मोमदेवमूरिका 46 कलमोंमें वगित उपासकाध्ययन (वि० सं० 1016) और श्रीचामुण्डरायका चारित्रमार (वि० सं० 1035 के लगभग ) दोनों गन्नकराडके पूर्ववर्ती ठहरेंगे. जिन्हें किमी तरह भी न करके पूर्ववर्ती मिद्ध नहीं किया जा सकता: क्योंकि दोनों रनकारगर के कितने ही शब्दादिके अनुमणको लिये हा है, . -चारित्रमारमें नो नवराटका 'सम्यग्दर्शनादा.' नामका एक पूग पद्य भी 'उक्तं च' म्पमे उदा है। पौर नन प्रो गाहबका यह कथन भी कि 'श्रावकाचार-विषयका मवम प्रधान और प्रानीन अन्य स्वामी ममन्नभद्रकृत रत्नकरण्ध्रावकाचार है उनके विरुद्ध जायगा, जिसे उन्होने पवना की ननवं पम्नक (वपन अनु की प्रस्तावनाम श्यत किया है और जिसका उन्हें उनके नरम पडकर कुछ धान रहा मानम नहीं होना धारयेयक निम्ब गये है कि 'गन्नापडको रचनाका ममयम (वद्यानन्दममय नि:म: :) पत्रान पोर वादिराजके समय प्रर्यात भर में 18 ! . म. 10 ) में पूर्व सिद्ध होता है। इस समयावधिक प्रा में लापरवशावार धोरबमालाका रचनामान समीप माजाने पर उनके बीच मायाका ग्रनगल नहीं रहना।' :मनाह गाभी गग और उदार पालीननके गाय विचार करनेपर प्रो. मारकी नागेनीलं प्रयवा प्रापनियोम में एक भी इस योग्य नही ठहरनी जो नकारावर चार और प्रमोमागाका भिन्नत मिल करने अथवा दोनोरे एककत में कोई बाधः सन्न करने में समर्थ हा मरे पोर इसलिये बाधक प्रमागोके प्रभाव एव गायक प्रमागरमदान में यह कहना न्याय-प्रास है किनकररावकाचार उन्ही म भ. पानायकी कृमि है, जो मातमीमांसा (देवागमक रचयिता है। पोरया मगनिर्णय है। - प्रकाव , farm..6.1. 9
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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