________________ 566 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश का उसे विक्रमकी दूसरी शताब्दी बतलाना किसी तरह भी युक्तियुक्त नहीं कहा जा सकता / अतः सन्मतिकार सिद्धसेनका जो समय विक्रमकोछठी शताब्दीके तृतीय चरण और सातवीं शताब्दीके तृतीय चरणका मध्यवती काल निर्धारित किया गया है वही समुचित प्रतीत होता है, जब तक कि कोई प्रबल प्रमाण उसके विरोध में सामने न लाया जावे। जिन दूसरे विद्वानोंने इस समयसे पूर्वकी अथवा उत्तरसमयकी कल्पना की है वह सब उक्त तीन सिद्धसेनोंको एक मानकर उनमें से किसी एकके ग्रन्थको मुख्य करके की गई है अर्थात् पूर्वका समय कतिपय द्वात्रिंशिकाओं के उल्लेखोंको लक्ष्यकरके और उत्तरका समय न्यायावतारको लक्ष्य करके कल्पित किया गया है / इस तरह तीन सिद्धसेनोंकी एकत्वमान्यता ही सन्मतिसूत्रकारके ठीक समय निर्णयमें प्रबल बाधक रही है. इसीके कारण एक सिद्धसेनके विषय अथवा तत्सम्बन्धी घटनामोंको दूसरे सिद्धसेनोंके साथ जोड़ दिया गया है, और यही वजह है कि प्रत्येक सिद्धसेनका परिचय थोड़ा-बहुत खिचड़ी बना हुआ है। (ग) सिद्धसेनका सम्प्रदाय और गुणकीर्तन अब विचारणीय यह है कि सन्मतिमूत्रके कर्ता सिद्ध सेन किस सम्प्रदायके प्राचार्य थे अर्थात् दिगम्बर सम्प्रदायसे सम्बन्ध रखते हैं या श्वेताम्बर सम्प्रदायसे और किस रूपमें उनका गुगग-कीर्तन किया गया है। प्राचार्य उमास्वाति(मी) और स्वामी समन्तभद्रकी तरह सिद्धसेनाचार्यकी भी मान्यता दोनों सम्प्रदायोंमें पाई जाती है। यह मान्यता केवल विद्वताके नाते सम्प्रदायोंमें आदर-सत्कारके रूपमें नहीं और न उनके किसी मन्तव्य अथवा उनके द्वारा प्रतिपादित किसी वस्तुतत्त्व या सिद्धान्त-विशेषका ग्रहण करनेके कारण ही है बल्कि उन्हें अपने अपने सम्प्रदायके गुरुरूप में माना गया है, गुर्वावलियों तथा पट्टावलियों में उनका उल्लेख किया गया है और उसी गुरुष्टिसे उनके स्मरण, अपनी गुणजताको साथमें व्यक्त करते हुए, लिखे गये है अथवा उन्हें अपनी श्रद्धाञ्जलियां अर्पित की गई है / दिगम्बर-सम्प्रदायमें सिद्धसेनको सेन-गण (संघ) का प्राचार्य माना जाता है और सेनगणको पट्टावली में उनका +देखो, जैनसिद्धान्तभास्कर किरण 1 पृ० 38 /