________________ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन सर्वोपरि रही है, इसीसे प्रकलदेव और विद्यनन्दादि-जैसे महान् ताकिकोंदार्शनिकों एवं वादविशारदों आदिने उनके यशका खुला गान किया है; भगवजिनसेनने मादिपुराणमें उनके यशको कवियों, गमकों, वादियों तथा वादियोंके मस्तकपर चूड़ामरिणकी तरह मुशोभित बतलाया है (इसी यशका पहली द्वाशिशिकाके 'तव प्रशिष्याः प्रथयन्नि यद्यशः' जैसे शब्दों में उल्लेख है ) और साथ ही उन्हें कविब्रह्मा-कवियोंको उत्पन्न करनेवाला विधाता-लिखा है तथा उनके वचन-रूपी वज्रपातसे कुमतरूपी पर्वत खण्ड-खण्ड हो गये, ऐसा उल्लेख भी किया है / और इसलिये उपलब्ध जैनवाङमय में समयादिककी दृष्टिसे आद्य तार्किकादि होनेका यदि किसीको मान अथवा श्रेय प्राप्त है तो वह स्वामीसमन्तभद्रको ही प्राप्त है / उनके देवागम (प्राप्तमीमांसा). युक्त यनुशासन, स्वयम्भूस्नोत्र और स्तुतिविद्या (जिनशतक) जैसे ग्रन्थ माज भी जनसमाजमें अपनी जोड़का कोई ग्रन्थ नहीं रखते / इन्ही ग्रंथोंको मुनि कल्याणविजयजीने भी उन निग्रंन्यचडामणि श्रीसमन्तभद्रकी कृतियां बतलाया है जिनका समय भी श्वेताम्बरमान्यतानुसार विक्रपकी दूसरी शताब्दी है / तब सिद्धसेनको विक्रमकी ५वीं शताब्दीका मान लेनेपर भी समन्तभद्रकी किसी कृतिको सिद्धसेनकी कृतिका अनुकरण कैसे कहा जा सकता है ? नहीं कहा जा सकता। इस सब विवेचनपरसे स्पष्ट है कि पं० मुवलालजीने सन्मतिकार सिद्धसेन को विक्रमकी पांचवी शताब्दीका विद्वान् मिद्ध करनेके लिये जो प्रमाण उपस्थित किये है वे उस विषयको सिद्ध करने के लिये बिल्कुल असमर्थ हैं। उनके दूसरे प्रमाणसे जिन सिद्धसेनका पूज्यपादसे पूर्ववर्तित्व एवं विक्रमकी पांचवीं शताब्दी में होना पाया जाता है वे कुछ द्वात्रिशिकाग्रोके कर्ता हैं न कि सन्मतिसूत्रके, जिसका रचनाकाल नियुक्तिकार भद्रबाहुके समयसे पूर्वका सिद्ध नहीं होता और इन भ: बाहुका समय प्रसिद्ध श्वेताम्बर विद्वान् मुनि श्रीचतुरविजयजी पौर मुनि श्रीपुण्यविजयजीने भी अनेक प्रमाणोंके आधारपर विक्रमकी छठी शतानीके प्राय: तृतीय चरण तकका निश्चित किया है . पं०सुखलालजी + विशेषके लिये देखो, 'सत्साघुस्मरण-मंगलपाठ' पृ० 25 से 51 / 8 तपागच्छपट्टावली भाग पहला पृ० 80 /