________________ 684 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश दृष्टिसे, भाषाको दृष्टिसे प्रार्य है तथा मतिज्ञान-श्रतज्ञानकी दृष्टिसे और सरायदर्शनकी दृष्टिसे भी प्रार्य हैं, उदाहरणके लिये मालवा, उड़ीसा, लंका पोर कोंकण प्रादि प्रदेशोंको ले सकते हैं जहाँ उक्त दृष्टियोंको लिये हुए प्रगणित प्रायं बसते हैं। हो सकता है कि किसी समय किसी दृष्टिविशेषके कारण इन देशोंके निवासियोंको म्लेच्छ कहा गया हो; परन्तु ऐसी दृष्टि सदा स्थिर रहनेवाली नहीं होती / आज तो फिजी जैसे टापुमोंके निवासी भी, जो बिल्कुल जंगली तथा असभ्य थे और मनुष्यों तक को मारकर खा जाते थे, पार्य पुरुषोंके संसर्ग एवं सत्प्रयत्नके द्वारा अच्छे सभ्य, शिक्षित तथा कर्मादिक दृष्टिसे मार्य बन गये हैं; वहां कितने ही स्कूल तथा विद्यालय जारी हो गये हैं और खेती दस्तकारी तथा व्यापारादिके कार्य होने लगे है। मोर इसलिये यह नहीं कहा जा सकता है कि फिजी देशके निवासी म्लेच्छ होते है / इसी तरह दूसरे देशके निवासियोंको भी जिन की अवस्था माज बदल गई है म्लेच्छ नहीं कहा जा सकता / जो म्लेच्छ हजारों वर्षोंसे प्रार्योके सम्पर्कमें मा रहे हों और पार्योंके कर्म कर रहे हों उन्हें म्लेच्छ कहना तो मार्योंके उक्त लक्षण अथवा स्वरूपको सदोष बतलाना है। प्रत: वर्तमानमें उक्त देशनिवासियों तथा उन्ही जमे दूसरे देशनिवासियोंको भी, जिनका उल्लेख एवमाइ' शब्दोंके भीतर सनि हित है, म्लेच्छ कहना समुचित प्रतीन नहीं होता पोर न वह म्लेच्छत्वका कोई पूरा परिचायक अथवा लक्षण ही हो सकता है। श्रीमलयगिरिमूरिने उक्त प्रज्ञापनासूत्रको टीकामे लिखा है "म्लेच्छा अव्यक्तभाषाममाचारा:," "शिष्टासम्मतसकलव्यवहारा म्लेच्छा.।" प्रर्यात-म्लेच्छ वे हैं जो अव्यक्त भाषा बोलते है-ऐसी अस्पष्ट भाषा बोलते हैं जो अपनी समझमें न पावे। अथवा शिष्ट (सम्य) पुरुष जिन भावादिकके व्यवहारोंको नहीं मानते उनका व्यवहार करनेवाले सब म्लेच्छ है। ये लक्षण भी ठीक मालूम नहीं होते; क्योंकि प्रथम तो जो भाषा मार्योक लिये अव्यक्त हो वही उक्त भाषाभाषी भनार्योक लिए व्यक्त होती है तथा