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________________ 614 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश : एसा तप्पारोगासंखेजलवाहियजयूदीवछेवणयसहिददीवसायररूपमेत्तरज्जुच्छेदपमाणपरिक्खाविही ण अण्णाइरिभोवएसपरंपराणुसारिणी केवल तु तिलोयपण्णत्तिसुत्ताणुमारिजोदिसियदेवभागहारपदुप्पाइदसुत्तावलंबिजुत्तिबलेण पयदगच्छसाहणट्टमम्देहि परूविदा।' यह गद्यांग धवला स्पर्शानुयोगद्वार पृ० 157 का है / तिलोयपण्यत्तिमें यह उसी प्रकार पाया जाता है / अन्तर केवल इतना है कि वहाँ 'अम्हेहि' के स्थानमें 'एसा परूवरणा पाठ है / पर विचार करने से यह पाठ प्रशुद्ध प्रतीत होता है; क्योंकि 'एस।' पद गयके प्रारम्भमें ही पाया हैप्रत: पुन: उसी पदके देनेकी मावश्यकता नहीं रहती। परिवखाविही' यह पद विशेष्य है; मतः पावणा' पद भी निष्फल हो जाता है। ____ "(गद्यांशका भाव देने के अनन्तर ) इस गद्यभागमे यह स्पष्ट हो जाता है कि उक्त गद्यभागमें एक गजुके जितने अचंछन बतलाये है वे तिलोयपणनिमें नहीं बतलाये गये है किन्तु निनोयपणत्तिमें जो ज्योतिथी देवोंके भागहारका कथन करनेवाला मूत्र है उसके बलमे मिद किये गए है / अब यदि यह गवभाग तिनोयपण्णनिका होता तो उमी में गिलोयपातिमनारामारि पद देने की पौर उसीके किमी एक मूत्रके बलपर गजुको चालू मान्यतासे मंख्यात अधिक प्रर्धछेद सिद्ध करने की क्या प्रावश्यकता थी। इसमें स्पष्ट मालूम होता है कि यह गद्यभाग घवलासे तिलोयपानिमें लिया गया है। नहीं तो दोरमेन स्वामी और देकर 'हमने यह परीक्षाविधि कही है' यह न कहने / कोई भी मनुष्य अपनी युक्तिको ही अपनी कहता है। उक्त गचभागमें पाया हमा 'प्रम्हेहि पद साफ बतला रहा है कि यह युति वीरसेनस्वामीकी है। इस प्रकार इस मबभागसे भी यही सिद्ध होता है कि वर्तमान तिमोयपप्णनिकी रचना धवलाके पनन्तर इन पांचों प्रमाणोंको देकर शास्त्रीजी ने बताया है कि 'धमाकी समाप्ति कि शक संवत् 738 में हुई थी इसलिये वर्तमान तिलोयपण्यति उससे पहले. भी बनी हुई नहीं है पोर कि त्रिलोकमार इसी सिलोपपत्तीके पापारपर बना हुआ है और उसके रचयिता नमिवन्द्र सि० पक्रवर्ती गक संबत 1..
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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