________________ तिलायपरणत्ती और यतिवृषभ मौलिक कृति है जो लघीयस्त्रयके छठे अध्याय में पाया है। तिलोयपष्मणत्तिकारने इसे भी नहीं छोड़ा / लघीयस्त्रयमें जहाँ यह श्लोक पाया है वहाँसे इसके अलग कर देने पर प्रकरण ही अधूरा रह जाता है। पर तिलोयपष्णत्तिमें इसके परिवर्तित रूपकी स्थिति ऐमे स्थल पर है कि यदि वहाँसे उसे अलग भी कर दिया जाय तो भी प्रकरणकी एकरूपता बनी रहती है। वीरसेनस्वामीने धवलामें उक्त श्लोकको उद्धृत किया है / तिलोयपण्यत्तिको देखने से ऐसा मालूम होता है कि तिलोयपत्तिकारने इमे लघीयस्त्रयसे न लेकर घवलासे ही लिया है; क्योंकि धवलामें इसके साथ जो एक दूसरा श्लोक उद्धृत है उसे भी उसी क्रमसे तिलोय. पण्यत्तिकारने प्रपना लिया है। इसमे भी यही प्रतीत होता है कि तिलोयपण्णात्तिकी रचना धवलाके बाद हुई है।" (4) "धवला द्रव्यप्रमाणानुयोगद्वारके पृष्ठ 36 में तिलोयपण्यत्तिका एक गाषांश उद्घन किया है जो निम्न प्रकार है __'दुगुणदुगुणी दुवग्गो णिरंतरा तिरियलोगो' त्ति / वर्तमान तिलोयपण्पत्तिमे इसकी पर्याप्त खोज की, किन्तु उसमें यह नहीं मिला / हाँ, इस प्रकारकी एक गाथा स्पर्गानुयोगमे वीरसेनस्वामीने अवश्य उद्धृत की है, जो इस प्रकार है 'चनाइच्चगह हिं चेवं रणक्खत्तताररूवहिं। दुगुण दुगुणेहि णीरतरहि दुबग्गी तिरियलोगो // " किन्तु वहाँ यह नहीं बतलाया कि कहाँकी है / मालूम पड़ता है कि इसीका उक्त गावांश परिवर्तित रूप है / यदि यह अनुमान टीक है. तो कहना होगा कि तिलोयपण्यत्ति पूरी गाया इस प्रकार रही होगी / जो कुछ भी हो, पर इतना मन है कि वर्तमान तिलोयपणाति उसमे भिन्न है।" (5) "तिलोयपणास में यत्र तत्र गद्य भाग भी पाया जाता है। इसका बहुत कुछ अंश धवलामें माये हए इस विषयके पद्य भागसे मिलता हुमा है। अत: यह शंका होना म्वाभाविक है कि इस मागका पूर्ववर्ती लेखक कौन रहा होगा। इस शंकाके दूर करने के लिये हम एक ऐसा गांश उपस्थित करते है जिससे इसका निर्णय करने में बड़ी र.हायता मिलती है। वह इस