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________________ 310 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश वाक्य इस प्रकार है ....."सर्वथैकान्तानां तदसंभवं भगवत्समन्तभद्राचार्यन्यायादावाद्यकान्तनिराकरणप्रवणादावेद्य वक्ष्यमानाच्च न्यायात्संक्षेपतः प्रवचनप्रामाण्यवादय मवधार्य तत्र निश्चितं नामात्मसात्कृत्य संप्रति श्रुतस्वरूपप्रतिपादकमकलंकग्रंथमनुवादपुरस्सरं विचारयति / " (पृ०२३६) इसपरसे ऐसा खयाल होता है कि यदि शब्दावतके खण्डनमें समन्तभद्रके उक्त दोनों श्लोक होते तो विद्यानन्द उन्हें यहां पर-इम प्रकरण में-उद्धृत किये बिना न रहने / और इमलिये इन श्लोकोंको समन्तभद्रके बतलाना संदेहसे खाली नहीं है। इन ग्लोकोंके साथ हरिभद्रमूरिके जिन पूर्ववर्ती वाक्योंको पाठकजीने उद्धृत किया है वे 'अनेकान्तजयपताका' की उस वृति के ही वाक्य जान पड़ते हैं जिसे स्वोपज्ञ कहा जाता है और उनमें "प्राह च वादिमुख्यः" इस वाक्यके द्वारा इन श्लोकोंको वादिमुख्यकी कृति बतलाया गया है-समन्तभद्रकी नही। वादिमुख्यको यहाँ समन्तभद्र नाम देना किसी टिप्पणीकारका कायं मालूम होता है, और शायद इमीमे उस टिप्पणीको पाठकजीने उद्धृत नही किया। हो सकता है कि जिम ग्रन्थके ये श्लोक हों उसे अथवा इन श्लोकोंको ही समन्तभद्रके समझनेमें टिप्पणीकारको, चाहे वे म्बुद हरिभद्र ही क्यों न हों-भ्रम हा हो। ऐमे भ्रमके बहुत कुछ उदाहरण पाये जाते हैकितने ही ग्रन्थ तथा वाक्य ऐमे देखनमें पाते हैं जो कृति तो है किसीकी और समझ लिए गये किसी दूसरे के / नमूनेके तौरपर 'तत्त्वानुशासन' को लीजिये, जो रामसेनाचार्यकी कृति है परन्तु मारिगकचन्द्रग्रन्थमालामें वह ग़लतीसे उनके गुरु नागसेनके नाममे मुद्रित हो गई है. पोर तबस हस्तलिखित प्रतियोंसे अपरिचित विद्वान् लोग भी देखादेखी नागसनके नाममे ही उसका उल्लेख करने लगे हैं। इसी तरह प्रमेयकमलमातंण्डके निम्न वाक्यको लीजिये, जो गलतीसे उक्त ग्रन्थमें अपनी टीकासहित मुद्रित हो गया है पोर उसपरसे कुछ विद्वानोंने यह समझ लिया है कि वह मूलकार माणिक्यनन्दीका वाक्य है, जिनके * देखो, जैन हितैषी भाग 14, पृ० 313
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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