________________ समन्तभद्रका समव और डा० के. बी. पाठक 309 त्रिरूपहेतुको स्वीकार किया है, और यह मान्यता किसी तरह भी संगत नहीं ठहर सकेगी, किन्तु विरुद्ध पड़ेगी। अतः यह तीसरा हेतु भी प्रसिद्धादि दोषोंसे दूषित होनेके कारण साध्यकी सिद्धि करनेके लिये समर्थ नहीं है। इस तरहपर जब यह सिद्ध ही नहीं है कि समन्तभद्रने अपने दोनों ग्रन्थोंके उक्त वाक्योंमेंमे किसी में भी धर्मकीनिका, धर्मकीतिक किसी ग्रन्थ-विशेषका या वाक्य-विशेषका अथवा उसके किसी ऐसे अन्नवी सिद्धान्त-विशेषका उल्लेख तथा प्रतिवाद किया है जिसका प्राविष्कार एकमात्र उसी के द्वारा हुअा हो, तब स्पष्ट है कि ये हेतु खुद अमिद्ध होनेसे तीनों मिलकर भी साध्यकी सिद्धि करने में समर्थ नहीं हो सकते--अर्यात् इनके आधारपर किसी तरह भी यह साबित नहीं किया जासकता कि स्वामी समन्तभद्र धर्मकीनिके बाद हुए है। चौथा हेतु भी समीचीन नहीं है; क्योंकि इस हेतु-द्वाग जो यह बात कही गई है कि 'ममन्तभद्रने भर्तृहरिके मतका खण्डन यथासम्भव प्राय: उसीके शब्दों को उद्धृत करके किया है वह मुनिश्चित नहीं है। इस हेतुको निश्चयपथप्राप्ति के लिये अथवा इसे सिद्ध करार देने के लिए कमसे कम दो बातोको साबित करनेकी खाम जरूरत है, जो लेखपरने सावित नहीं हैं- एक तो यह है कि "बोधात्मा चेच्छदम्य" इत्यादि दोनों इलोक वस्तुनः समन्तभद्रकी कृति है, और दूसरी यह है कि भर्तृहरिमे पहले शब्दावन मिद्धान्तका प्रतिपादन करने वाला दूसरा कोई नहीं हुग्रा है--भर्तृहरि ही उमका माद्य विधायक है.---और यदि हया है तो उसके द्वारा 'न मोस्नि प्रन्ययो लोके" इत्यादि श्लोकमे मिलता जुलता या ऐमे प्रागयका कोई वाक्य नहीं कहा गया है अथवा एक ही विषयपर एक ही भाषामे दो विद्वानोंके लिखने बैठनेपर परस्पर कुछ भी शब्द-सादृश्य नहीं हो सकता है / लेख में यह नहीं बतलाया गया है कि उक्त दोनो नोक समन्तभद्रके कौनसे ग्रन्थके वाक्य हैं। समन्तभद्रके उपलब्य ग्रन्थोंमेमे किसी भी ते पाये नहीं जाते और न विद्यानन्द तथा प्रभाचन्द्र-जमे प्राचार्योंके ग्रन्थों में ही वे उल्लेखित मिलते हैं, जो समन्तभद्रके वाक्योंका बहुत कुछ अनुसरण करनेवाले हुए है। विद्यानन्दके श्लोकवात्तिकमें इस शन्दाढतके सिद्धान्तका खण्डन प्रकलंकदेवके