________________ 308 जैनसाहित्य और इतिहासपर विश प्रकाश सामने ऐसी ही परिस्थिति थी और इस वाक्यसे उनका वही लक्ष्य था जो प्रकलंकदेव-द्वारा प्रतिपादित हुमा है, तो भी इससे यह सिद्ध नहीं होता कि यह त्रिलक्षणहेतु धर्मकीर्तिका ही था, क्योंकि धर्मकीनिसे पहले भी बौद्ध-सम्प्रदायमें हेतुको त्रिलक्षणात्मक मानागया है। जैसा कि दिग्नागके 'प्रमाणसमुच्चय' तथा 'हेतुचक्रडमरु' मादि ग्रंथोंपरसे प्रकट है-प्रमाणसमुच्चयमें 'त्रिरूपहेतु' नामका एक अध्याय ही अलग है / नागार्जुनने अपने 'प्रमाणविहेतना ग्रन्थमें नैय्यायिकोंके पंचांगी अनुमानकी जगह त्र्यंगी अनुमान स्थापित किया है * और इससे ऐसा मालूम होता है कि जिस प्रकार नैय्यायिकोंने पंचांगी अनुमानके साथ हेतुको पंचलक्षण माना है उसी प्रकार नागार्जुनने भी श्यंगी अनुमानका विधान करके हेतुको त्रिलक्षणरूपसे प्रतिपादित किया है। इस तरह विलक्षण अथवा रूप्य हेतुका अनुसन्धान नागार्जुन तक पहुँच जाता है / इसके सिवाय, प्रशस्तपादने काश्यपके नामसे जो निम्न दो श्लोक उद्धृत किये है उनके प्राशयमे यह स्पष्ट जाना जाता है कि वैशेषिक दर्शनमे भी बहुत प्राचीन कालमे रूप्य हेतुकी मान्यता प्रचलित थी यदनुमेयेन मम्बद्धं प्रसिद्धं च तदन्विते / तदभावे च नास्त्येव तल्लिङ्गमनुमापकम् / / विपरीतमतो यत्स्यादेकेन द्वितयेन वा। विरुद्धासिद्धसंदिग्धमलिंगं काश्यपाऽनवीन / / यदि केवल इस त्रिलक्षरण-हेतुके उल्लेखके कारण,जो स्पष्ट भी नही है,ममन्तभद्रको धर्मकीतिके बादका विद्वान् माना जायगा तो दिग्नागको और दिग्नागके पूर्ववर्ती उन प्राचार्योंको भी धर्मकीतिके बादका विद्वान् मानना पड़ेगा जिन्होंने देखो, डा० सतीशचन्द्रकी उक्त हिस्टरी अाफ़ इण्डियन लाजिक 10 85-66 ___ * देखो, श्रीनमंदाशंकर मेहताशंकर बी० ए० कृत "हिन्द तत्त्वज्ञाननो इतिहास पृष्ठ 182 / देखो, गायकवाड़सिरीजमें प्रकाशित 'न्यायप्रवेश' की प्रस्तावना (Introduction) पृ० 23 प्रादि /