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________________ समन्तभद्रका समय और डा० के. बी. पाठक 307 से दूषित होनेके कारण साध्यकी सिद्धि करने-समन्तभद्रको धर्मकीतिके बादका विद्वान् करार देने के लिये समर्थ नहीं है। तीसरे हेतुमें प्राप्तमीमांसाकी जिस कारिका नं० 106 का उल्लेख किया गया है वह इस प्रकार है सधर्मणैव साध्यस्य साधादविरोधतः / स्याद्वादप्रविभक्तार्थ-विशेष-व्यंजको नयः।। इसमें नयका स्वरूप बतलाते हुए स्पष्ट रूपसे बौद्धोंके रूप्य अथवा विलक्षण हेतुका कोई नामोल्लेख नहीं किया गया है, जो "पक्षधर्मत्वं सपक्षे सत्वं विपक्षे चासत्वं" इन तीन रूप है * और न उसपर सीधी कोई आपत्ति ही की गई है,बल्कि इतना ही कहागया है कि स्याद्वाद ( श्रतज्ञान )के द्वारा प्रविभक्त अर्थविशेषका जो साध्यके सधर्मारूपमे, साधर्म्यरूपमे और अविरोधरूपसे व्यंजक है-प्रतिपादक है-वह 'नय' है / इमीमे प्राप्तमीमामा ( देवागम ) को मुनकर पात्रकेसरी स्वामी जब जनधर्मके श्रद्धालु बने थे तब उन्हें अनुमानविषयक हेतुके स्वरूप में सन्देह रहगया था-~उक्त ग्रन्थपरमे यह स्पष्ट नहीं हो पाया था कि जैनधर्म मम्मत उमका क्या स्वरूप है और उसमे बौद्धका त्रिलक्षणहेतु कैमे असमीचीन ठहरता है / और वह मन्देह बादको “अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेगा किम / नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम" इम वाक्यकी उपलब्धिपर दूर होसका था, और इसके प्राधारपर ही वे बौद्धोंके विलक्षणहेतुका कदर्थन करने में समर्थ हुए थे। परन्तु अकलकदेव-जैसे टीकाकारोंने, जो पात्रकंसरीके बाद हुए हैं, अपने बुद्धि-वैभवमे यह बनियान करके बतलाया है कि उक्त कारिकामे 'सपक्षेगव ( सधर्मणैव ) साध्यस्य साधान' इन शब्दोंके द्वाग हेनुके लक्षण्ण रूपको और 'अविराधान' पदमे हेतुके अन्यथानुपपत्ति स्वरूपको दर्शाते हुए यह प्रतिपादित किया गया है कि केवल त्रिलक्षणके आहेतुपना है, तत्पुत्रत्वादिकी तरह है। यदि यह मान लिया जाय कि समन्तभद्रके ___ * देखो, 'न्यायप्रवेग' प्रादि प्राचीन बौद्ध ग्रन्थ / t'मपक्षेगव साध्यस्य माधादित्यनेन हेतोस्त्रलक्षण्यमविरोधात् इत्यन्यथानुपपत्तिं च दर्शयता केवलस्य विलक्षणस्यासाधनत्वमुक्त तत्पुत्रत्वादिवत् / ' -अष्टशती
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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