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१३८ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश
सर्वार्थसिद्धेऽपि जघन्या द्वात्रिंशत्सागरोपमाण्यधीता तन विद्मः केनाप्य-' भिप्रायेण | आगमस्तावदयम् - "
अर्थात् — विजयादिक चार विमानोमें जघन्य स्थिति इकत्तीस सागरकीउत्कृष्ट स्थिति बत्तीस सागरकी है और सर्वार्थसिद्ध मैं अजघन्योत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागर की है । परन्तु भाष्यकारने तो सर्वार्थसिद्ध में जघन्यस्थिति बत्तीस सागरकी बतलाई है, हमें नहीं मालूम किस श्रभिप्रायमे उन्होंने ऐसा कथन किया है । आगम तो यह है - ( इसके बाद प्रज्ञापनासूत्रका वह वाक्य दिया है जो ऊपर उद्धृत किया गया है) ।
(७) छठे अध्याय में तीर्थंकर प्रकृति नामकर्मके श्रास्रव - कारणोंको बतलाते हुए जो सूत्र दिया है वह इस प्रकार है
"दर्शन विशुद्धि विनयसम्पन्नता शीलत्रतेष्वनतिचारोऽभीक्ष्णं ज्ञानोपयोग संवेगौ शक्तितस्याग-तपसी संघसाधुसमाधिर्वैयावृत्य कर रामदाचार्य बहुश्रुत प्रवचनभक्तिरावश्य का परिहाणिर्मार्गप्रभावना प्रवचनवत्स- लत्वमिति तीर्थकरत्वस्य || २३ ||”
यह सूत्र दिगम्बर सूत्रपाठके विल्कुल समकक्ष है - मात्रसाधुसमाधिसे पहले यहां 'संघ' शब्द बढ़ा हुआ है, जिससे अर्थ में कोई विशेष भेद उत्पन्न नहीं होता । दि० सूत्रपाठ में इसका नम्बर २४ है । इसमें सोलह काररणोंका निर्देश है और वे हैं- १ दर्शनविशुद्धि, २ विनयसम्पन्नता, ३ शीलव्रतानतिचार, ४ अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, ५ अभीक्ष्णासवेग, ६ यथाशक्ति त्याग, तप, ८ संघसाघुसमाधि, ६ वैयावृत्यकररण, १० प्रद्भक्ति, ११ प्राचार्यभक्ति, १२ बहुश्रुतभक्ति, १३ प्रवचनभक्ति, १४ प्रावश्यकापरिहारिण, १५ मार्गप्रभावना,
यथाशक्ति
१६ प्रवचनवत्सलत्व ।
परन्तु श्वेताम्बर आगममें तीर्थंकरत्वकी प्राप्ति के बीस कारण बनलाये हैं- सोलह नहीं और वे है — १ द्वत्सलता, २ सिद्धवत्सलता, ३ प्रवचनवत्सलता, ४ गुरुवत्सलता, ५ स्थविरवत्सलता, ६ बहुश्रुतवत्सलता, ७ तपस्वि
* 'पढमचरमेहि पुट्ठा जिरणहेऊ बीस ते इमे
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- सत्त रिसयठारणाद्वार १०