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समंतभद्रका मुनिजीवन और आपत्काल
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अब क्या है ? मुनिवेषको कायम रखता हुआ यदि भोजनादिके विषयमें स्वेच्छाचारसे प्रवृत्ति करू तो उससे अपना मुनिवेष लज्जित और कलंकित होता है, और यह मुझसे नहीं हो सकता; में खुशीसे प्राण दे सकता हूं परन्तु ऐसा कोई काम नहीं कर सकता जिससे मेरे कारण मुनिवेष अथवा मुनिपदको लज्जित और कलंकित होना पड़े। मुझसे यह नहीं बन सकता कि जैनमुनिके रूपमें उस पदके विरुद्ध कोई हीनाचारण करू; और इसलिये मुझे अव लाचारीसे अपने मुनिपदको छोड़ना ही होगा । मुनिपदको छोड़कर में 'क्षुल्लक' हो सकता था, परन्तु वह लिंग भी उपयुक्त भोजनकी प्रातिके योग्य नहीं है— उस पदधारीके लिए भी उद्दिष्ट भोजनके त्याग प्रादिका कितना ही ऐसा विधान है जिसमे, उस पकी मर्यादाको पालन करते हुए, रोगोपनान्तिके लिये यथेष्ट भोजन नहीं मिल सकता. और मर्यादाका उल्लंधन मुझमे नहीं बन सकता- इसलिये में । उस वेपको भी नहीं धारण करूंगा। बिल्कुल गृहस्थ बन जाना अथवा यों ही
किसीके श्राश्रयमे जाकर रहना भी मुझे इष्ट नही है। इसके सिवाय, मेरी । चिरकालको प्रवृत्ति मुझे इस बातकी इजाजत नही देती कि मै अपने भोजनके लिये किसी व्यक्ति विशेषको कष्ट मे अपने भोजनके लिए ऐसे ही किसी निर्दोष मार्गका अवलम्बन लेना चाहता है जिसमें खास मेरे लिये किसीको भी भोजनका कोई प्रवन्ध न करना पड़े और भोजन भी पर्याप्त रूपमें उपलब्ध होता रहे।"
यही सब सोचकर अथवा उसी प्रकारके बहुत से ऊहापोहके बाद, आपने अपने दिगम्बर मुनिवेषका प्रादरके साथ त्याग किया और साथ ही, उदासीन भावसे, अपने शरीरको पवित्र भस्मसे प्राच्छादित करना प्रारंभ कर दिया। उस समयका दृश्य बड़ा ही करुणाजनक था । देहमे भस्मको मलते हुए आपकी श्रांखें कुछ हो श्राई थी। जो प्रां भस्म व्याधिको तीव्र वेदनासे भी कभी द नहीं हुई थी उनका इस समय कुछ ग्रार्द्र हो जाना साधारण बात न थी । मंघ मुनिजनोंका हृदय भी प्रापको देखकर भर आया था और वे सभी भावीकी मध्य शक्ति तथा कर्मके दुर्विपाकका ही चितन कर रहे थे । समन्तभद्र जब अपने देहपर भस्मका लेप कर चुके तो उनके बहिरंग में भस्म और अंतरङ्गमें सम्यग्दर्शनादि निर्मल गुरगोंके दिव्य प्रकाशको देखकर ऐसा मालूम होता था कि