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________________ २२० जैनसाहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश मुनिवेषको छोड़नेका खयाल आते ही उन्हें फिर दुःख होने लगा और वे सोचने लगे-"जिस दूसरे वेषको मैं अाज तक विकृत + और मप्राकृतिक वेष समझता मारहा हूँ उसे मैं कैसे धारण करू ! क्या उसीको अब मुझे धारण करना होगा? क्या गुरुजीकी ऐसी ही माज्ञा है ?-हाँ, ऐसी ही प्राज्ञा है । उन्होंने स्पष्ट कहा है-'यही मेरी प्राज्ञा है, चाहे जिस वेषको धारण करलो, रोगके उपशांत होनेपर फिरसे जैनमुनिदीक्षा धारण कर लेना, तब तो इसे प्रलंध्यशक्ति भवितव्यता कहना चाहिये। यह ठीक है कि मैं वेष (लिंग) को ही सब कुछ नहीं समझता-उसीको मुक्तिका एक मात्र कारण नहीं जानता, वह देहाश्रित है और देह ही इस प्रात्माका संसार है; इमलिये मुझ मुमुक्षुकासंसार-बंधनोंसे छूटनेके इन्कका-किमी वेषमे एकान्त प्राग्रह नहीं हो सकता 8; फिर भी मैं वेषके विकृत और अविकृत ऐमे दो भेद जरूर मानता हूँ, और अपने लिये अविकृत वेषमें रहना ही अधिक अच्छा ममभता है । इसीमे, यद्यपि, उस दूसरे वेष में मेरी कोई नि नहीं हो सकती, मेरे लिये वह एक प्रकारका उपसर्ग ही होगा और मेरी अवस्था उम ममय अधिकतर चनोपसृष्ट मुनि जैसी ही होगी; परन्तु फिर भी उम उपसर्गका कर्मा तो मै खुद ही हंगा न? मुझे ही स्वयं उम वेपको धारण करना पड़ेगा ! यही मेरे लिये कुछ कष्टकर प्रतीत होता है । अच्छा, अन्य वेप न धारण कर तो फिर उपाय भी + ततस्तत्सिद्धयर्थ परमकरणी ग्रन्थमुभय । भवानवात्याक्षीन्न च विकृतवेपोधिरतः ।। -स्वयभूस्तोत्र ॐ श्रीपूज्यपादक ममाधितंत्रमें भी वेपविषयमें केमा ही भाव प्रतिपादित किया गया है। यथा लिगं देहाधितं दृष्ट देह एवात्मना भवः । न मुच्यन्ते भवात्तस्मात ये लिंगकृतागृहा: ।।७।। अर्थात्-लिंग ( जटाधारण-नग्नत्वादि) देहाश्रित है पोर देह ही प्रामा का संसार है, इमलिये जो लोग लिंग (वेष) का ही एकान भाग्रह रखते है-- उसीको मुक्तिका कारण समझते है-वे संसारबंधनसे नहीं छूटते ।
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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