________________ 664 जनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश द्वारा * इस फैले हुए भ्रमको दूर करते हुए यह स्पष्ट करके बतला दिया कि स्वामी पात्रकेसरी और विद्यानन्दका व्यक्तित्व ही नहीं, किन्तु अन्यसमूह पौर समय भी भिन्न है-पात्रकेसरी विद्यानन्दसे कई शताब्दी पहले हुए है। प्रकलंकदेवसे भी कोई दो शताब्दी पहलेके विद्वान है, और इसलिये उनका अस्तित्व श्रीवद्धदेवसे भी पहले का है / और इसीसे प्रब, जब कि सम्यक्त्वप्रकाश-जैसे ग्रन्थकी पोल खुल चुकी है, मैंने उक्त तीनों शिलालेखोंकी मौजूदगीको लेकर यह प्रतिपादा किया है कि उनसे श्री राइस साहबके अनुमानका समर्थन हाता है, वह ठीक पाया गया और इसीसे उसपर की गई अपनी आपत्तिको मैने कभीका वापिस ले लिया है। जब स्वय कोंगुरिणवर्माका एक प्राचीन शिलालेख शक संवत् 25 का * उपलब्ध है और उससे मालूम होता है कि कोंगुरिगवर्मा वि. सं. 160 ( ई० मन् 103) मे राज्यासन पर प्रारूढ थे तब प्राय: यही समय उनके गुरु एवं राज्यके प्रतिष्ठापक सिंहनन्दी प्राचार्य का समझना चाहिये, और इसलिये कहना चाहिये कि सिंहनन्दीकी गुरु-परम्परामें स्थित स्वामी समन्तभद्राचार्य अवश्य ही वि०. मंवत् 160 से पहले हुए है; परन्तु कितने पहले, यह अभी अप्रकट है। फिर भी पूर्वीवर्ती होने पर कम से कम 30 वर्ष पहले तो ममन्न. भद्रका होना मान ही लिया जा सकता है; क्योंकि 35 वे शिलालेख में सिंहनन्दीसे पहले प्रायदेव, वरदत्त और शिवकोटि नामके तीन प्राचार्टीका और भी उल्लेख पाया जाता है, जो समन्तभद्रकी शिष्यमन्तानमें हुए है और जिनके लिये 10-10 वर्षका प्रोसन ममय मान लेना कुछ अधिक नहीं है। इसमें ममन्तभद्र निश्चितम्पमे विक्रमकी प्राय. दूसरी शताब्दीके पूर्वाधं के विद्वान् ठहरने हैं / और यह भी हो सकता है कि उनका पस्तित्वकाल उत्तरार्ध में भी वि० मा 165 (शक मा 6.) तक चलता रहा हो; क्योकि उस समयको स्थितिका ऐमा बोध होता है कि जब कोई मुनि प्राचार्य पदके योग्य होता था तभी उसको प्राचार्यपद दे दिया जाता था और इस तरह एक प्राचार्यके समयमें उनके कई * ये दोनों लेख इस निबन्धसग्रहमे अन्यत्र पृ० 637 म 667 तक प्रकाशित हो रहे हैं।