________________ समन्तभद्रका समय-निर्णय शिष्य भी प्राचार्य हो जाते थे और पृषक रूपसे अनेक मुनि संघोंका शासन करते थे; अथवा कोई कोई प्राचार्य अपने जीवनकालमें ही प्राचार्य-पदको छोड़ देते थे और संघका शामन अपने किसी योग्य शिष्यके सुपुर्द करके स्वयं उपाध्याय या साधु परमेष्ठीका जीवन व्यतीत करते थे। ऐसी स्थिनिमें उक्त तीनों प्राचार्य समन्त भद्रके जीवन-कालमें भी उनकी सन्तानके रूपमे हो सकते है। शिलालेखोंमें प्रयुक्त प्रवरि शब्द 'ततः' वा 'तदनन्तर' जैसे अर्थका वाचक है और उसके द्वारा एकको दूसरे से बादका जो विद्वान सूचित किया गया है उसका अभिप्राय केवल एकके मरण और दूसरेके जन्मसे नहीं बल्कि शिप्यत्वग्रहण तथा पाचार्य-पदको प्रति प्रादिकी दृष्टिको लिये हुए भी होता है और इस लिये उम भन्द-प्रयोगसे उक्त तीनों प्राचार्योका ममन्तभद्रके जीवन-कालमें होना बाधित नहीं ठहरता। प्रत्युत इसके, समन्तभद्र के ममयका जो एक उल्लेख शक संवत् ६०(वि.सं.१९५)का-संभवत:उनके निधनका-मिलता है उसकी सगति भी ठीक बंट जाती है / स्वामी समन्तभद्र जिनशामनके एक बहुत बड़े प्रचारक पौर प्रमारक हुए है, उन्होंने अपने ममयमे श्रीवीर जिनके शासनकी हज़ार गुगली वृद्धि की है. मा एक शिलालेख में उल्लेख है, अपने मिशनको सफल बनाने के लिये उनके द्वारा अनेक गियोंको अनेक विषयोंमें खाम तौर सुशिक्षित करके उन्हें अपने जीवनकालमें ही शामन-प्रचार के कार्य में लगाया जाना बहुत कुछ स्वाभाविक है, और इममे सिंहनन्दी जसे धर्म-प्रचारकी मनोवृत्ति के उदारमना प्राचार्यके अस्तित्वकी सभावना समन्तभद्रक जीवनकालमें ही अधिक जान पड़ती है / प्रस्तु। आरके इन मब प्रमाग्गों एवं विवेचनकी भगनी में यह बात प्रसन्दिग्धरूपमे स्पष्ट हो जाती है कि स्वामी ममन्नभद्र विक्रमकी दूमरी शताब्दीके विद्वान थे-भले हो वे इस शताब्दीक उत्तराध में भी रहे हो या न रहे हों। और हम लिये जिन विद्वानोने उनका समय विक्रम या ईमाकी तीसरी शताब्दीमे भी बादका अनुमान किया है यह सब भ्रम-मूलक है। डाक्टर केसील पाठकने अपने एक लेबमें ममन्तभद्रके समयका अनुमान ईमाकी पाठवी शताम्दीका पूर्वाधं किया था, जिसका युक्ति-पुरम्स र निराकरण 'समन्तभद्रषा समय मौर स० के० बी० पाठक' नामक निबन्ध (नं. 18 ) में विस्तार के साथ