________________ 666 जैनसाहित्य और इतिहासपरविशद प्रकाश किया जा चुका है और उसमें उनके सभी हेतुप्रों को प्रसिद्धादि दोषों से दूषित सिद्ध करके नि:सार ठहराया गया है (पृ० 267-322) / डाक्टर सतीशचन्द विद्याभूषणने,प्रपनी 'हिस्टरी माफ़ दि मिडियावल स्कूल माफ़ इन्डियन लॉजिक' में, यह अनुमान प्रकट किया था कि समन्तभद्र ईसवी सन् 600 के लगभग हुए हैं। परन्तु मापके इस अनुमानका क्या प्राधार है अथवा किन युक्तियोंके बलपर प्राप ऐमा नुमान करने के लिये बाध्य हुए हैं यह कुछ भी सूचित नहीं किया / हाँ, इससे पहले इतना जरूर सूचित किया है कि समन्तभद्रका उल्लेख हिन्दू तत्त्ववेत्ता 'कुमारिल ने भी किया है और उसके लिये डा० भाण्डारकरको सस्कृत ग्रन्थोंके अनुसन्धान विषयक उस रिपोर्टके पृ० 118 को देखने की प्रेरणा की है जिसका उल्लेख इस लेखके शुरू में एक फुटनोट-द्वारा किया जा चुका है / साथ ही, यह प्रकट किया है कि 'कुमाग्लि' बौद्ध तार्किक विद्वान् 'धर्मकीति'का समकालीन था पोर उसका जीवन काल प्राम तौर पर ईमाकी ७वी शताब्दी (६३५मे 650) माना गया है। शायद इतने परसे ही-कुमारिलके ग्रन्थमें समन्तभद्रका उल्लेख मिल जाने मात्रमे हीमापने समन्तभद्रको कुमारिलमे कुछ ही पहल का अथवा प्राय: समकालीन विद्वान् मान लिया है, जो किसी तरह भी युक्ति-मगत प्रतीत नहीं होना / कुमारिलने अपने श्लोक्वातिकमें, प्रकलंकदेवके 'प्रगती' ग्रन्थपर, उसके 'प्राज्ञाप्रधानाहि...' इत्यादि वाक्योंको लेकर कुछ कटाक्ष किये है , जिमसे प्रकलंकके अष्टशती' ग्रन्थका कुमारिलके मामने मौजूद होना पाया जाता है। और यह अष्टशती ग्रंथ समन्नभद्रके "देवागम' म्तोत्रका भाष्य है, जो ममन्तममे कई शताब्दी बादका बना हुप्रा है। इसमे विद्याभपात्रीक अनुमानको नि:सारना सहज ही व्यक्त हो जाती है। इन दोनों विद्वानोंके अनुमानोंके सिवाय पं० मुम्बलालजीका, 'भानबिन्दु' की परिचयात्मक प्रस्तावनामे, समन्तभद्रकी मिना किसी हेतुके हो पूज्यपाद (विक्रम छटी शताब्दी)का उत्तरवर्ती बतलाना और भी अधिक निःसारताको लिये हए है-वे पूज्यपादके 'जैनेन्द्र' व्याकरणमें 'चतुश्यं समन्तभद्रम्य' पौर दखा, प्रोफेसर के. बी. पाठकका दिगम्बर जैन साहित्यम कुमारिल. का स्थान' नामक निबन्ध /