________________ समन्तभद्रका समय-निर्णय 'वेत्तेः सिद्धसेनस्य' इस दो सूत्रोंके द्वारा समन्तभद्र और सिद्धसेनके उल्लेखको जानते-मानते हुए भी सिद्धसेनको तो एक मूत्रके प्राधार पर पूज्यपादका पूर्ववर्ती बतला देते है परन्तु दूसरे सूत्रके प्रति गज-निमीलन-जसा व्यवहार करके उसे देखते हुए भी अनदेखा कर जाते हैं और समन्तभद्रको यों ही चलती कलमसे पूज्यपादको उत्तरवर्ती कह डालते है ! साथ ही, इस बातको भी भुला जाते है कि सन्मतिकी प्रस्तावनामें वे पूज्यपादको समन्तभद्रका उत्तरवर्ती बतला माए है और यह लिम्ब पाए है कि 'स्तुतिकाररूपमें प्रसिद्ध इन दोनों प्राचार्योंका उल्लेख पूज्यपादने अपने व्याकरण के उक्त मूत्रोमे किया है उनका कोई भी प्रकारका प्रभाव पृज्यपादकी कृतियों पर होना चाहिये, जो कि उनके उक्त उत्तरवर्ती कथन के विरुद्ध पडता है। उनके इम उत्तरवर्ती कथनका विशेष ऊहापोह nवं उमकी निःसारताका व्यक्तीकरण 'मन्मनिमूत्र और मिद्ध सेन' नामक निबन्धके 'मिद्धमेनका ममयादिक' प्रकरण ( पृ० 5.43-566 ) में किया गया है और उसमें तथा सिद्धमेनका मम्प्रदाय और गुणकीर्तन' नामक प्रकरण(पृ० 5.66-585 ) में यह भी स्पष्ट करके बतलाया गया है कि ममन्तभद्र न्यायावतार पोर मन्मतिमूयक कर्मा सिद्ध सेनोंसे ही नहीं, किन्तु प्रथमादि बिशिकाओके का सिद्धगेनों में भी पहले हुए हैं। 'स्वयम्भूस्तुति' नामकी प्रथमदाविधिकामे मिद्धमेनने 'अनन मवेशपरीक्षणक्षमास्त्वयि प्रमादान यमामा: ग्यिता: जैम वाक्योके दाग सर्वज्ञपरीक्षकके रूपमें स्वयं ममन्तभद्रका म्मरण किया है घोर अन्तिम पद्यमे तव गुणकथाका वयमपि' जैसे वाक्योंका मायमे प्रयोग करके वीरम्नुनिक रचने में ममन्तभद्र के अनुकरण की साफ सूचना भी की है-लिखा है कि इस सर्वज्ञ-बारको परीक्षा करके हम भी मापकी गुगणकया करने में उत्मक हए है। समयका अन्यथा प्रतिपादन करने वाले विद्वानोंके भनुमानादिककी ऐसी स्थिति में समनभद्रका विकमकी दूसरी अथवा ईमाकी पहली शताब्दीका समय और भी पधिक निर्णीत और निविवाद हो जाता है। दिल्ली, मंगसिर शुक्ला पंचमी स. 2012