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जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश
कल्प- सम्बन्धी चतुर्थ कालके पिछले भागमें जब कुछ कम चौंतीस वर्ष अवशिष्ट रहे थे तब वर्षके प्रथम मास, प्रथम पक्ष और प्रथम दिनमें श्रावरणकृष्ण प्रतिपदाको पूर्वाह्न समय अभिजित् नक्षत्र में भगवान महावीरके तीर्थकी उत्पत्ति हुईं थी । साथ ही, यह भी बतलाया है कि श्रावण - कृष्ण - प्रतिपदाको रुद्र- मुहूर्तमें सूर्योदय के समय अभिजित् नक्षत्रका प्रथम योग होनेपर जहाँ युगकी आदि कही गई है उसी समय इस तीर्थोत्पत्तिको जानना चाहिये :
"इमिस्सेऽवसप्पणीए चउत्थसमयस्स पच्छिमे भाए । चोत्तीसवाससेसे किंचिवि सेसूगए संते || १ || वासस्स पढममासे पढमे पक्खम्मि सावणे बहुले । पादिवदिवसेतित्थुपपत्ती दु अभिजिम्मि ||२|| सावबहुलपविरुद्दमुहुत्ते सुहोदए रविणो ।
अभिजिस्स पढमजोए जत्थ जुगादी मुणेयव्वा ||३||"
श्रावरण- कृष्ण - प्रतिपदाको तीर्थोत्पत्ति होनेका यह स्पष्ट अर्थ है कि वैशाख सुदि १०मीको केवलज्ञान हो जानेपर भी आषाढ़ी पूर्णिमा तक अर्थात् ६६ दिन तक भगवान महावीरकी दिव्यध्वनि-वारणी नहीं खिरी श्रीर इसीमे उनके प्रवचन (शासन) तीर्थ की उत्पत्ति पहले नहीं हो सकी— इन ६६ दिनोंमें वे श्री जिनसेनाचार्य के कथनानुसार मौनसे विहार करते रहे हैं । ६६ दिन तक दिव्यध्वनि प्रवृत्त न होनेका कारण बतलाते हुए धवल और जयधवल दोनों ग्रन्थोंमें एक रोचक शंका-समाधान दिया गया है, जो इस प्रकार है
"छासठ दिवसावर यणं केवलकालम्मि किमट्ठ कीरदे ? केवलरणाणे समुपणे वितत्थ तित्थारगुववत्तीहो । दिव्वज्झुरणीय किमट्ठ तद्धाऽपउत्ती ? गणिदाभावादो । सोहमिदेण तक्खणे चैव गरिदो किए - धोदो ? कालीए विरणा असहायरस देविंदस्स तद्धोयणसत्तीए अभाबाहो । सगपादमूलम्मि पडिवण्णमहव्वयं मोत्तृण प्रणमुद्दिसिय दिव्वकुणी किरण पयट्टदे ? साहावियादो ए च सहावो परपज्जणियोगारुडो अब्ववत्थापत्तदो ।"
शंका- केवल - कालमेंसे ६६ दिनोंका घटाना किस लिये किया जाता है ?