________________ 328 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश इसमें पं० सुखलालजीके जिस युक्ति-वाक्यका डबल इनवर्टेड कामाजके भीतर उल्लेख है उसे पं० महेन्द्रकुमारजीने अकलंकअन्नत्रय और न्यायकुमुदचन्द्र द्वि० भागके प्राक्कथनोंमें देखनेकी प्रेरणा की है, तदनुसार दोनों प्रावकथनोंको एकसे अधिक बार देखा गया, परन्तु खेद है कि उनमें कहीं भी उक्त वाक्य उपलब्ध नहीं हुआ ! न्यायकुमुदचन्द्रकी प्रस्तावनामें यह वाक्य कुछ दूसरे ही शब्दपरिवर्तनोंके माथ दिया हप्रा है* और वहां किसी 'प्राक्कथन' को देखनेकी प्रेरणा भी नहीं की गई / अन्छा होता यदि 'भास्कर' वाले लेखमें भी किमी प्राक्कथनको देखनेको प्रेरणा न की जाती अथवा पं० सुखलालजीके तर्कको उन्हीके गब्दोंमें रक्ग्वा जाता और या डबल इनवर्टेड कामाजके भीतर न दिया जाता। प्रस्तु; इस विषयम पं० मुम्बलालजीने जो नर्क अपने दोनों प्राक्कथनोमे उपस्थित किया है उसके प्रधान प्रंशको ऊपर माधन नं० 2 में संकलित किया गया है. और उममें पडितजीके वाम शब्दोको इनवर्टेड कामाजके भीतर दे दिया है / इनगे पंडितजीके तर्ककी स्पिरिट अथवा रूपरेखाको भले प्रकार ममभा जा सकता है। पडितजीने अपने पहले प्राक्कयनमे उपस्थित नर्कमा वावन मा प्रावक यनमे यह स्वयं स्वीकार किया है कि- 'मेरी बह (समभगीवादी ) दनील विद्यानन्दके स्पष्ट उल्लेम्बके प्राधारपर किये गये निगं यी पोषक है। सौर में मैंने वहाँ स्वतन्त्र प्रमाणके रूपमे पेग नहीं किया है: पाक नोकको 'पूज्यपादकर बतलानेवाला जब विद्यानन्दका कोई स्पष्ट लव है हो नहीं और उनकी कल्पनाके प्राधारपर जो निर्णय किया गया कामह बिन गया है नव पापकके पमें उपस्थित की गई दलील भी व्यथं पड़ जाती है; क्योंकि जब वह दीवार ही नहीं रही जिसे लेप लगाकर गए किया जाय नत्र लेप व्यथं ठहरना है-उमका कुछ प्रर्थ नहीं रहता / और इलिये पंडितजीको वह दलील विचारके योग्य नहीं रहती। * यथा- “यदि ममन्नभद्र पूज्यपादके प्राक्कालीन होते तो वे अपने इम युग-प्रधान प्राचार्यकी प्रासमीमांसा जैमी अनूठी कृतिका उल्लेख किये बिना नहीं रहते।"