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________________ सर्वार्थसिद्धिपर समन्तभद्रका प्रभाव 327 ऐसी स्थितिमें पं० सुखलालजीके द्वारा अपने प्राक्कथनोंमें प्रयुक्त निम्न वाक्यों का क्या मूल्य रहेगा, इसे विज्ञपाठक स्वयं समझ सकते हैं " 'पूज्यपादके द्वारा स्तुत प्राप्तके समर्थन में ही उन्होंने ( समन्तभद्रने) प्राप्तमीमांसा लिखी है' यह बात विद्यानन्द ने प्राप्तपरीक्षा तथा अष्टसहस्रीमें सर्वथा स्पष्ट रूपसे लिखी है।" -अकलंकग्रन्थत्रय, प्राक्कथन पृ० 8 "मैंने अकलंकग्रन्यत्रयके ही प्राक्कथनमें विद्यानन्दकी आप्तपरीक्षा एवं प्रष्टसहस्रीके स्पष्ट उल्लेखके आधारपर यह नि:शंक रूपप्से बतलाया है कि स्वामी समन्तभद्र पूज्यपादके श्रानम्तोत्रके मीमांसाकार है अतएवं उनके उत्तरवर्ती ही है।" __" ठीक उसी तरहमे समन्तभद्रन भी पूज्यपाद के 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' वाले मंगलपद्यको लेकर उसके ऊपर प्राप्तमीमांमा रची है।" "पूज्यपाद का 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' वाला मप्रसन्न पद्य उन्हें ( समन्तभद्रको ) मिला फिर तो उनकी प्रतिभा और जग उठी।" -न्यायकुमुद० द्वि० प्राक्कथन पृ०१७-१६ इन वाक्योंपरमे मुझे यह जानकर बड़ा ही पाश्चर्य होता है कि पं० सुखलालजी-जमे प्रौढ़ विद्वान् भी कच्चे प्राधारोंगर ऐसे सुनिश्चित वाक्योंका प्रयोग करते हुए देखे जाते है ! मम्भवत: इमकी तहमे कोई गलत धारणा ही काम करती हुई जान पड़ती है, अन्यथा जब विद्यानन्दने आसपरीक्षा और प्रष्टसहस्रीमें कही भी उक्त मंगलश्लोकके पूज्यपादकृत होनेकी बात लिखी नही तब उमे 'मधंथा स्पष्ट रूपमे लिखी" बनलाना कैसे संगत हो सकता है ?" नहीं हो सकता। अब रही दूसरे साधनकी बात, 10 महेन्द्रकुमारजी इस विषयमें पं० सुखलालजीके एक युक्ति-वाक्यको उद्धृतकरते और उसका अभिनन्दन करते हुए, अपने उसी जैनमिद्धान्तभास्कर वाले लेखके अन्तमें, लिखते हैं "श्रीमान् पंडित सुखलालजी साटका इस विषयमे यह तर्क "कि यदि समन्तभद्र पूर्ववर्ती होते, तो समन्तभद्रकी प्राप्तमीमांसा जैसी अनूठी कृतिका उल्लेख अपनी सर्वार्थसिद्धि प्रादि कृतियोंमें किए बिना न रहते" हृदयको लगता है।"
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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