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________________ सर्वार्थसिद्धिपर समन्तभद्रका प्रभाव 326 / यद्यपि, पं० महेंद्रकुमारजीके शब्दों में, "ऐसे नकारात्मक प्रमाणोंमे किसी प्राचार्य के समयका स्वतन्त्रभावमे साधन-बाधन नहीं होता" फिर भी विचारकी एक कोटि उपस्थित होजाती है / मम्भव है कलको पं० मुखलालजी अपनी दलीलको स्वतन्त्र प्रमाणके रूप में भी उपस्थित करने लगें, जिसका उपक्रम उन्होंने "ममन्तभद्रकी जनपरम्पराको उम समयकी नई देन" जैसे शब्दोंको बादमे जोडकर किया है और साथ ही समन्नभद्रकी असाधारण कृतियोंका किमी प्रामे म्पर्श भी न करने' नककी बात भी ये लिम्ब गये हैं अतः उमार-----द्वितीय माधनार- विचार कर लेना ही प्रावस्यक जान पड़ता है। मोर उभीक मो. :मेयागे प्रान्त किया जाता है। मबगे पहले मै यह बतला देना चाहता हूँ कि या किसी प्राचार्य के लिये यह प्रावश्यक नहीं है कि वह अपने पूर्ववर्ती प्राचार्योक मभी विपयोंको अपने ग्रन्थमें उल्लेम्बित प्रथवा चर्चित करे-मा करना न करना ग्रंयकारको रुचिविशेषपर अवलम्बित है / चुनत्रि से बहनसे प्रमागा उपस्थित किये जासकते है जिनमें पिछले प्राचार्योने पूर्ववर्ती प्राचार्योंकी तिनी ही वातोंको अपने ग्रन्थों मे छमा नक भी नहीं; उसने पर भी पूज्यपादके मब ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। उनके 'मारमं नाम के एक म्बाम ग्रन्थ का धवला' में नयविषयक उन्लेख मिलता है। पोर मामे वह उनका महन्वका म्वतन्त्र अन्य जान पड़ता है। बहुत सम्भव है कि में उन्होंने ममभंगी' को भी विगदन की हो। उस अन्यकी अनुपलब्धि की हालसमें पद नही कहा जा मका कि पूज्यपादने 'मतभंगी' का कोई विवाद धिन न किया अथवा उमे छपा तक नहीं / इसके मिवाय. गप्तमा एकमात्र ममन्तभद्रकी ईजाद अथवा उन्हीके द्वारा प्रावि कृत नहीं है, बल्कि उसका विधान पहनेगे चला पाता है और वह श्रीकुन्दकन्दाचार्य के प्रन्यो में भी रूपमे पाया जाता है; जमा कि निम्न दो गाथाओंमे प्रकट है 23 देम्बो, न्यायकुमुदचन्द्र विभागका 'प्राक्कथन पृ०१८ / + 'नगा मासंग्रहे युक्तं पूज्यपाद:-अनन्तपर्याय:त्मकस्य वस्तुनोऽन्यतमायाधिगमे कर्तव्ये जात्यहत्वपेक्षो निरवयप्रयोगो नय' इति "
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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