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________________ 330 जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश अस्थि त्ति य णस्थि त्ति य हवदि अवत्तव्यमिदि पुणो दव्वं / पज्जायेण दु केण वि तदुभयमादिट्ठमएणं वा / / 2-23 -प्रवचनसार सिय अस्थि णस्थि उहयं अव्वत्तव्वं पुणो य तत्तिदर्य / दव्वं खु सत्तभंगं आदेसवसेण संभवदि / / 14 / / -पंचास्तिकाय प्राचार्य कुन्दकुन्द पूज्यपादसे बहुत पहले हो गये हैं। पूज्यपादने उनके मोक्षप्राभूतादि ग्रन्थोंका अपने समाधितंत्रमें बहुत कुछ अनुमरण किया है-कितनी ही गाथानोंको तो अनुवादितरूपमें ज्यों-का-त्यों रख दिया है और कितनी ही गाथाओं को अपनी सर्वार्थसिद्धि में 'उक्तं च' प्रादि रूपसे उद्धृत किया है, जिसका एक नमूना ५वें अध्यायके १६वें सूत्रकी टीकामें उद्धन पंचास्तिकायकी निम्न गाथा है अण्णोण्णं पविसंता दिता श्रीगासमण्णमएणम्स / मेलंता वि य णिच्चं सगं समावं ण विजहंति / / 7 / / ऐसी हालतमें पूज्यपादके द्वारा 'सप्तभंगी' का स्पष्ट शब्दोंमें उल्लेख न होनेपर भी जैसे यह नहीं कहा जा सकता कि प्रा० कुन्दकुन्द पूज्यपादके बाद हुए हैं वैसे यह भी नहीं कहा जा सकता कि समन्तभद्राचार्य पूज्यपादके बाद हुए हैउत्तरवर्ती है / और न यही कहा जा सकता है कि 'सतभंगी' एकमात्र समन्तभद्रकी कृति है-उन्हींकी जैनपरम्पराको 'नई देन' है / ऐसा कहनेपर प्राचार्य कुन्दकुन्दको समन्तभद्रके भी वादका विद्वान् कहना होगा, और यह किसी तरह, भी सिद्ध नहीं किया जा सकता-मकराके ताम्रपत्र और अनेक शिलालेख तथा अन्योंके उल्लेख इसमें प्रबल बाधक है। अत: पं० सुखलालजीको 'सतमंगी वाली दलील ठीक नहीं है-उससे उनके अभिमतकी सिटि नहीं हो सकती। अब में यह बतला देना चाहता हूँ कि प. मुखलालजीने अपने साधन. ( दलील ) के अंगरूप में जो यह प्रतिपादन किया है कि 'पूज्यपादने ममन्तभद्र की असाधारण कृतियों का किसी अंशमें स्पर्श भी नहीं किया' वह पभ्रान्त न होकर +देखो, वीरसेवामन्दिरमे प्रकाशित 'समाधितंत्र' की प्रस्तावना
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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