________________ 414 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश सबके प्रतिकारमें काफी शक्ति लगानी पड़ती है तथा प्रारम्भ से सावध कर्म करने पड़ते हैं और इस तरह उक्त सम्पत्ति एवं विभूतिका मोह बढ़ता रहता है / इसीसे इस सम्पत्ति एवं विभूतिको बाह्यपरिग्रह कहा गया है। मोहके बढ़नेका निमित होनेसे इन बाह्यपदार्थो के साय अधिक सम्पर्क नहीं बढ़ाना चाहिये, पावश्यकतासे अधिक इनका संचय नहीं करना चाहिये / मावश्यतामों को भी बराबर घटाते रहना चाहिये / मावश्यकतामोंकी वृद्धि बन्धनोंकी ही वृद्धि है ऐसा समझना चाहिये और मावश्यतानुसार जिन बाह्य चेतन-अचेतन पदार्थोके साथ सम्पर्क रखना पड़े उनमें भी प्रासक्तिका भाव तथा ममत्व-परिणाम नहीं रखना चाहिये। यही सब बाह्यारिग्रहका एकदेश भौर सर्वदेश त्याग है। एकदेश त्याग गृहस्थियों के लिये पौर सर्वदेश त्याग मुनियोंके लिये होता है। इन दोनों प्रकारके परिग्रहोंके पूर्ण त्याग-विना वह समाधि नहीं बनती जिसमें चारों घातिया कर्मप्रकृतियोंको भस्म किया जाता है और न उस अहिमाकी मिद्धि ही होती है जिसे 'परमब्रह्म' बतलाया गया है / अतः समावि और अहिसा परमब्रह्म दोनोंकी सिद्धि के लिये दोनों प्रकारके परिग्रहका, जिन्हें 'ग्रन्य' नाममे उल्लेखित किया जाता है, त्याग करके नैन्थ्य-गुण अथवा अपरिग्रह-वतको अपनानेकी बड़ी जरूरत होती है। इसी भावको निम्न दो * इसी बातको लेकर विप्रवंशाग्रणी श्रीपात्रकेसरी स्वामीने, जो स्वामी समन्तभद्रके 'देवागम' को प्राप्त करके जैनधर्म में दीक्षित हुए थे, अपने स्तोत्रके निम्न पद्य में परिग्रही जीवोंकी दशाका कुछ दिग्दर्शन कराते हुए, लिखा है कि 'ऐसे परिग्रहवशति-कलुपात्मामोंके शुक्लरूप सध्यानता बनती कहां है ?' परिग्रहवतां सतां भयमवश्यमापयते प्रकोर-परिहिंसने च परुषाऽनृत-व्याहृती / ममत्वमथ चोरत: स्वमनसश्च विभ्रान्तता कुतो हि कलुवात्मनां परमशुक् नसध्यानता ||42 / / (पात्रकेसरी) + उभय-परिग्रह-वर्जनमाचार्याः सूचपस्यहिंसेति / द्विविध-परिग्रह-वहन हिंसति जिन-प्रवचननाः // 118 / / -पुरुषार्थसिद्ध्युराये, प्रमतचन्द्रसूरिः