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________________ . समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र 415 कारिकाओं में व्यक्त किया गया है गुणाभिनन्दादभिनन्दनो भवान्दयावधू' क्षान्तिसखीमशिश्रियत् / समाधितंत्रस्तदुपोपपत्तये द्वयेन नम्रन्थ्यगुणेन चाऽयुजत् / / 16 / / अहिंसा भूनानां जगति विदितं ब्रह्म परम न सा तत्राऽऽम्भोऽस्त्यणुरपि च यत्राश्रमविधौ / ततस्त सिद्धयर्थ परमकरुणो ग्रन्थमुभयं / भवानेवाऽत्याक्षीन्न च विकृत-वेषोपधिरतः // 11 // यह परिग्रह त्याग उन साधुनोंमे नहीं बनता जो प्राकृतिक वेषके विरुद्ध विकृत वेष तथा उपधिमें रत रहते हैं। और यह त्याग उस तृष्णा-नदीको मुखाने के लिये ग्रेष्मकालीन मूर्य के समान है, जिसमें परिश्रमरूपी जल भरा रहता है और अनेक प्रकारके भयोंकी लहरें उठा करती है। दृष्टिविकारके मिटनेपर जब बन्धनोंका ठीक भान हो जाता है, शत्रु-मित्र एवं हितकर-अहितकरका भेद साफ़ नज़र आने लगता है और बन्धनों के प्रति प्रचि बढ़ जाती है तथा मोक्षप्राप्तिको इच्छा तीवमे तीव्रतर हो उठनी है तब उम मुमुक्षुके मामने चक्रवर्तीका सारा साम्राज्य भी जीर्ग तगके ममान हो जाता है, उमे उममें कुछ भी रस अथवा सार मालूम नहीं होता, और इसलिए वह उससे उपेक्षा धारण कर -दधू-वित्तादि सभी सुखरूप समझी जानेवाली सामग्री एवं विभूतिका परित्याग कर-जगलका रास्ता लेता है और अपने ध्येयकी सिद्धिके लिये अपरिग्रहादि-व्रतस्वरूा 'दगम्बरी' जिनदीक्षाको अपनाता है-मोक्षकी साधनाके लिये निर्ग्रन्थ साधु बनता है। परममुमुक्षु के इसी भाव एवं कर्तव्यको श्रीषभजिन और परजिनकी स्तुतिके निम्न पद्योंमें समाविष्ट किया गया है विहाय यः सागर-वारिवाससं वधूमिवेमां वसुधा-वधू सतीम् / मुमुक्षुरिक्ष्वाकु-कुलादिरात्मवान प्रभुः प्रवबाज सहिष्णुरच्युतः / / 3 / / लक्ष्मी विभव-सर्वस्वं मुमुक्षोश्चक्रलांचनम् / साम्राज्यं सार्वभौम ते जरत्तृणमिवाऽभवत् // 8 // समात बाह्य परिम्ह भोर गृहस्थ-जीवनकी सारी सुख-सुविधामोंको त्याग कर साधु-मुनि बनाना यह मोक्ष मार्गमें एक बहुत बड़ा कदम उठाना
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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