________________ समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र 413 रोगकी प्रमोघ पौषधि है / भनेकान्त ही इस दृष्टिविकारके जनक तिमिर-जालको छेदनेकी पैनी छैनी है। जब दृष्टि में अनेकान्त समाता है-अनेकान्तमय अंजनादिक अपना काम करता है-तब सब कुछ ठीक-ठीक नज़र आने लगता है। दृष्टिमें अनेकान्तके संस्कार विना जो कुछ नज़र आता है वह सब प्राय: मियां, भ्रमरूप तथा प्रवास्तविक होता है / इसीसे प्रस्तुत ग्रन्थमें दृष्टिविकारको मिटानेके लिये अनेकान्तकी खास तौरसे योजना की गई है-उसके स्वरूपादिकको स्पष्ट करके बतलाया गया है, जिससे उसके ग्रहण तथा उपयोगादिकमें मुविधा हो सके। साथ ही, यह स्पष्ट घोषणा की गई है कि जिस दृप्टिका प्रात्मा अनेकान्त है-जो दृष्टि अनेकांतसे संस्कारित अथवा युक्तहै-वह सती सच्ची अथवा समीचीन दृष्टि है, उसीके द्वारा सत्यका दर्शन होता है; और जो दृष्टिग्रनेकान्तात्मक न हो कर सर्वथा एकान्तात्मक है वह असती झूठी अथवा मिथ्यादृष्टि है और इसलिये उसके द्वारा सत्यका दर्शन न होकर असत्यका ही दर्शन होता है। वस्तुतत्त्वके भनेकान्तात्मक होनेसे अनेकान्तके बिना एकान्तकी स्वरूप-प्रतिष्ठा बन ही नहीं सकती / प्रत: सबसे पहले दृष्टिविकारपर प्रहार कर उसका मुधार करना चाहिये और तदनन्तर मोहके दूसरे अंगोंपर, जिन्हें दृष्टि-विकारके कारण अभी सक अपना सगा समझकर अपना रक्खा था, प्रतिपक्ष भावनामोंके बलपर अधिकार करना चाहिये-उनसे शत्रु-जैसा व्यवहार कर उन्हें अपने प्रात्मनगरसे निकाल बाहर करना चाहिए अयवा यों कहिये कि क्रोधादिम्प न परिणमनेका दृढ संकल्प करके उनके बहिष्कारका प्रयत्न करना चाहिये / इसीको अन्तरंग परिग्रहका त्याग कहते हैं। अन्तरंग परिग्रहको जिसके द्वारा पोषण मिलता है वह बाह्य परिग्रह है पोर उसमें संसारकी सभी कुछ सम्पत्ति और विभूति गामिल है / इस बाद्यसम्पत्ति एवं विभूतिके सम्पर्क में अधिक रहनेसे रागादिककी उत्पत्ति होती है, ममत्व-परिणामको अवसर मिलता है, रक्षण-वर्द्धन और विघटनादि-सम्बन्धी भनेक प्रकारको चिन्ताएँ तथा माकुलताएँ घेरे रहती है, भय बना रहता है, जिन ॐ अनेकान्तात्मदृष्टिस्ते सती शून्यो विपर्ययः / ततः सवं मुषोक्तं. स्यात्तदयुक्तं स्वघाततः / / 68 //