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________________ समन्तभद्रके प्रन्योंका संचित परिचय ...२ यतिपतिरको यस्याधृष्टान्मवाम्बुनिघेलवान् स्वमतमतयस्ती• नाना परे समुपासते ।।११।। यह पद्य यदि वृत्ति के अन्तमें ऐसे ही दिया होता तो हम यह नतीमा निकाल सकते थे कि यह बसुनन्दी प्राचार्यका ही पद्य है और उन्होंने अपनी वृत्तिके अन्त मंगलस्वरूप इमे दिया है । परन्तु उन्होंने इसकी वृत्ति दी है और साथ ही इसके पूर्व निम्न प्रस्तावनावाक्य भी दिया है____ "कृतकृरयो निव्यूढतत्त्वप्रति श्राचार्यः श्रीसमन्तभद्र केसरी प्रमाणनयतीक्ष्णनखरदंष्ट्राविदारित-प्रवादिकुनयमदविह्वलकुम्भिकुम्भस्थलपाटनपटुरिदमाह-" ___इससे दो बाने स्पष्ट हो जाती है,एक तो यह कि यह पद्य वसुनन्दी प्राचार्यका नहीं है, दूसरी यह कि वमुनन्दीनं इसे ममन्तभद्रका ही, ग्रन्थके अन्त मंगलस्वरूप, पद्य समझा है और वैसा समझकर ही इसे वृति तथा प्रस्तावनाके साथ दिया है। परन्तु यह पद्य, वास्तवमें, मूल ग्रन्थका अन्तिम पद्य है या नहीं यह बात अवश्य ही विचारणीय है और उसका यहाँ विचार किया जाता है.____ इस ग्रन्थपर भट्टाकलंकदेवने एक भाष्य लिखा है, जिसे 'अष्टशती' कहते है और श्रीविद्यानन्दाचार्यने 'अष्टसहस्त्री' नामक एक बड़ी टीका लिखी है, जिमे 'मासमीमांसालंकृति' तथा 'देवागमालंकृति' भी कहते हैं । इन दोनों प्रधान तथा प्राचीन टीकाग्रन्थोंमें इस पद्यको मूल ग्रन्थका कोई अंग स्वीकार नहीं किया गया और न इसकी कोई व्याख्या ही की गई है। 'अष्टशती' में तो यह पद्य दिया भी नहीं। हाँ, 'अष्टमहत्री' में टीकाकी समाप्तिके बाद, इमे निम्न वाक्यके साथ दिया है 'अत्र शास्त्रपरिसमानौ केचिदिदै मंगलवचनमनुमन्यते ।' उक्त पद्यको देने के बाद 'श्रीमदकलंकदेवाः पुनरिदं वदन्ति' इस वाक्यके माय 'अष्टशती' का अन्तिम मंगलपद्य उद्धृत किया है; और फिर निम्न वाक्यके साय, श्रीविद्यानन्दाचार्यने अपना अन्तिम मंगल पद्य दिया है___ "इति परापरगुत्प्रवाहगुणगणसंस्तवस्य मंगलम्य प्रसिद्धर्वये तु वभक्तिवशादेवं निवेदयामः ।"
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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