SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 217
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समन्तभद्रका मुनिजीवन और प्राएकाल २१३ से यह स्पष्ट है कि समन्तभद्रके शरीर में उस समय कफ क्षीण होगया था और वायु तथा पित्त दोनों बढ़ गये थे; क्योंकि कफके श्रीगा होने पर जब पित्त, वायुके साथ बढ़कर कुपित हो जाता है तब वह अपनी गर्मी और तेजी से जठराग्निको अत्यन्त प्रदीस, बलाढ्य और तीक्ष्ण कर देता है और वह अग्नि, अपनी तीक्ष्णनामे, विरूक्ष शरीर में पड़े हुए भोजनका निरस्कार करती हुई उसे क्षरणमात्रमें भस्म कर देती है । जठराग्निकी इस अत्यन्त तीक्ष्णावस्थाकी ही 'भस्मक' रोग कहते हैं । यह रोग उपेक्षा किये जाने पर अर्थात् गुरु, स्निग्ध शीतल मधुर और श्लेष्मल ग्रनपानका यथेष्ठ परिमागमे प्रथवा तृप्तिपर्यन्त सेवन न करने पर - शरीर के रक्तमांसादि धातुम्रोको भी भस्म कर देता है, महादोवंल्य उत्पन्न कर देता है, तृषा, स्वेद, दाह तथा मूच्र्छादिक अनेक उपद्रव खड़े कर देता है और अन्तमें रोगीको मृत्युमुखमे हो स्थापित करके छोड़ना है । इस रोगके श्राक्रमण पर समन्तभद्रने शुरूशुरू में उनकी कुछ पर्वाह नहीं की । वे स्वेच्छापूर्वक धारण किये हुए उपवासों तथा अनशनादि तपकि ग्रवसरपर जिस * "कट्वादिक्षान्त्रभुजां नराणा क्षीणे कके मास्तरवृद्धी । श्रतिप्रवृद्ध. पवनान्वितोऽग्निर्भुक्त क्षणाद्भस्मकरोति यस्मात् । तस्मादमी भस्मकमज्ञको भूदुपेक्षितायं पचने च धान्नु ।' -- इति भावप्रकाशः । "नरे क्षीणक के पित्त कुपित मारुतानुगम् । स्वोष्मणा पावकस्थानं बलमग्नेः प्रयच्छति ॥ तथा लब्धलो देहे विरूक्षं साऽनिलोऽनलः । परिभूय पचत्यन्न तैक्ष्ण्यादा मुहं मुहुः ॥ पक्वान्नं सततं धानुन् मणितादीन्पचत्यपि । ततो दौर्बल्यमानकान् मृत्यु चोपनयेन्नरं ॥ भुक्तेऽन्ने लभते शांति जीगांमात्र प्रताम्यति । तृस्वेदामूच्र्छाः स्युर्व्याधयोज्यग्निसंभवाः ॥ ' " तमेत्यग्नि गुरुस्निग्धशीतमघुरविज्वलः । अन्नपानैर्नयेच्छान्ति दीप्तमग्निमिवाम्बुभिः ॥ " - इति चरकः ।
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy