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२१४ जैनसाहित्य और इतहासपर विशद प्रकाश प्रकार क्षुधापरीषहको सहा करते थे उसी प्रकार उन्होंने इस अवसर पर भी, पूर्व अभ्यासके बलपर, उसे सह लिया। परन्तु इस क्षुधा और उस क्षुधामें बड़ा अन्तर था; वे इस बढ़ती हुई क्षुधाके कारण, कुछ ही दिन बाद, असह्य वेदनाका अनुभव करने लगे; पहले भोजनसे घंटोंके बाद नियत समय पर भूखका कुछ उदय होता था और उस समय उपयोगके दूसरी ओर लगे रहने प्रादिके कारण यदि भोजन नही किया जाता था तो वह भूख मर जाती थी
और फिर घंटों तक उमका पता नहीं रहता था; परन्तु अब भोजनको किये हुए देर नहीं होती थी कि क्षुधा फिरसे या धमकनी थी और भोजनके न मिलनेपर जठराग्नि अपने प्रामपामके रक्त मांसको ही ग्वीच म्वीचकर भम्म करना प्रारम्भ कर देती थी। ममन्तभद्रको इममें बड़ी वेदना होती थी, क्षुधाके समान दूसरी शरीर वेदना है भी नहीं; कहा भी गया है
'तुधासमा नास्ति शरीरवेदना ।" इस तीव क्षुधावेदनाके अवसरपर किमीमे भोजनकी याचना करना, दोबारा भोजन करना अथवा रोगीपमानिके लिये किमीको अपने वारने प्रच्छे स्निग्ध, मधुर, गीतल, गरठ पार करकारी भोजनोके नय्यार करनकी प्रेरणा करना, यह सब उनके मुनियमके विरुद्ध था। इसलिये ममन्तभद्र, वमनस्थितिका विचार करते हए, उस समय अनेक उनमोनम भावनानांवा चिन्तवन करने थे और अपने ग्रात्माको सम्बोधन करके कहने थे-'हे. ग्रामन, तुन अनादिकालग इम संसार में परिभ्रमण करने हा अनेक बार नरक पशु प्रादि गनियाम दु.मह क्षुधावेदनाको महा है, उसके ग्रागे तो यह नेरी क्षुधा कुछ भी नही है । तुझे इतनी नीव क्षुधा रह चुकी है जो तीन लोकका अन्न म्बाजान पर भी उपगम न हो, परन्तु एक कगा बाने को नहीं मिला। ये मब कर तून पगधीन होकर सहे हैं और इसलिए उनमे कोई लाभ नहीं होमका, अब तू स्वाधीन होकर इस वेदनाको सहन कर। यह मब नरे ही पूर्वकमका दविपाक है । माम्यभावमे वेदनाको मह लेने पर कर्म की निजंग हो जायगी, नवीन कम नहीं बंधेगा और न ागेको फिर कभी गमे दुःखोको उठाने का अवसर ही प्राप्त होगा।' इस तरह पर समन्तभद्र अपने गाम्यभावको हुनु रखते थे और कायादि दुर्भावोंको उत्पन्न होनेका अवमर नहीं देते थे। इसके सिवाय, वे इस शरीरको