________________
समन्तभद्रका मुनिजीवन और आपत्काल
२१५
कुछ अधिक भोजन प्राप्त कराने तथा शारीरिक शक्तिको विशेष क्षीण न होने देनेके लिये जो कुछ कर मकते थे वह इतना ही था कि जिन अनशनादि बाह्य तथा घोर तपश्चरग्गोंको वे कर रहे थे और जिनका अनुष्ठान उनकी नित्यकी इच्छा तथा शक्तिपर निर्भर था- मूलगुगोंकी तरह लाज़मी नहीं था-उन्हें वे ढीला अथवा स्थगित कर दें। उन्होंने वैसा ही किया भी-वे अब उपवाम नहीं रखते थे, अनगन, ऊनादर, वृनिपरिमख्यान रमपरित्याग और कायक्लेश नामके बाद्य तपोंके अनुष्ठानको उन्होंने, कुछ कालके लिये, एकदम स्थगित कर दिया था, भोजनके भी वे अब पूरे ३२ ग्राम लेते थे; माथ ही गेगी मुनिके लिये जो कुछ भी रिमायत मिल सकती थी वे भी प्राय: मभी उन्होंने प्राप्त कर ली थी । परन्तु यह मब कुछ होते हुए भी, आपकी क्षुधाको जग भी शाति नहीं मिली, वह दिनपर दिन बढ़ती और नीबगे नीबतर होती जाती थी: जटगनलकी ज्यालाओं तथा पिनकी नीया माने सरीरका रम-रक्तादि दग्ध हा जाता था, ज्वलाप गरीर के अगोपर दुर दर तक धावा कर रही थी, और नित्यका म्वल्प भोजन उनके लिये जग भी पर्याप्त नहीं होता था .. वह एक जाज्वल्यमान अग्निपर थोडेंगे जनक बीटेका ही काम देता था। गके अतिरिक्त 'यदि किमी दिन भोजनका अन्न गय हो जाना था नो योर की ज्यादा गजब हो जाना था--- शुधा गनगी उस दिन और भी ज्यादा तथा निर्दय म्प धारण कर लेनी थी । म नरहार ममनभद्र जिम महावेदनाका अनुभव कर रहे थे उसका पाटर अनुगान भी नहीं कर सकते । मादा त अन्नं अच्छे धीरवीरोंका धैर्य बट जाना है. श्रद्धान भ्रष्ट हो जाता है और ज्ञानगुगण डगमगा जाता है। परन्तु ममलभद्र महामना थे, महात्मा थे. ग्रान्म-देहान्लग्नानी थे संपत्ति - विनिमें ममनिन थे, निमल सम्यग्दर्शन के मानक थे और उनका ज्ञान अदुःखभावित नही था जो दु:खोके आने पर भीगा हो जाय, उन्होंने यथाशनि उा उग्र तपश्चरगोके दाग कष्ट महनका अन्द्रा अभ्यास किया था, वे अानंदपूर्वक कष्टोको महन किया करते थे-उन्हें सहते हुए खेद नहीं मानते
प्रदुःख भावितं ज्ञानं क्षीयते दुःखमन्निधौ । तस्माद्यथाबलं दुखरात्मानं भावयेन्मुनिः ॥ --समाधितन्त्र ।