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________________ २१६ जैनसाहित्य और इतिहसपर विशद प्रकाश थे। और इसलिये, इस संकटके अवसरपर वे जरा भी विचलित तथा धैर्यच्युत नहीं हो सके। समन्तभद्रने जब यह देखा कि रोग शान्त नहीं होता, शरीरकी दुर्बलता बढ़ती जा रही है, और उस दुर्बलताके कारण नित्यकी आवश्यक क्रियानोंमें भी कुछ बाधा पड़ने लगी है। साथ ही, प्यास प्रादिकके भी कुछ उपद्रव शुरू हो गये हैं, तब आपको बड़ी ही चिन्ता पैदा हुई । आप सोचने लगे-"इस मुनि अवस्थामें, जहाँ आगमोदित विधिके अनुसार उद्गम-उत्पादनादि छयालीम दोषों चौदह मलदोषों और बत्तीस अन्तरायोंको टालकर, प्रासुक तथा परिमित भोजन लिया जाता है वहाँ इस भयंकर रोगकी शान्तिके लिये उपयुक्त और पर्याप्त भोजनकी कोई व्यवस्था नहीं बन सकती ॐ । मुनिपदको कायम रखते हुए, यह रोग प्रायः असाध्य अथवा निःप्रतीकार जान पड़ता है; इसलिये या तो मुझे अपने मुनिपदको छोड़ देना चाहिये और या 'सल्लेखना' व्रत धारण करके इस शरीरको धर्मार्थ त्यागनेके लिये तय्यार हो जाना चाहिये; परन्तु मुनिपद कैम छोड़ा जा सकता है ? जिम मुनिधर्म के लिये में अपना सर्वस्व अर्पण कर चुका हैं, जिम मुनिधर्मको मैं बड़े प्रेमके साथ अब तक पालता आ रहा हैं और जो मुनिधर्म मेरे ध्येयका एक मात्र आधार बना हुआ है उसे क्या में छोड दू? जो आत्मा और देहके भद-विज्ञानी होते है ब ऐसे कष्टों को सहते हुए खेद नहीं माना करते, कहा भी है प्रात्मदहान्तरज्ञानजनिताहादनिर्वृतः ।। तपसा दुष्कृतं घोरं भुजानापि न विद्यते ।। -समाधितन्त्र * जो लोग पागममे इन उद्गमादि दापों तथा अन्तरायोंका स्वरूप जानते हैं और जिन्हें पिण्डशुद्धिका अच्छा ज्ञान है उन्हें यह बतलाने की शरूरत नहीं है कि सच जैन साधुनोंको भोजनके लिये वैगे ही कितनी कठिनाइयोंका माम । करना पड़ता है। इन कठिनाइयोंका कारगा दातारों की कोई कमी नहीं है; बल्कि भोजनविधि और निर्दोष भोजनकी जटिलता है। उसका प्रायः एक कारण है-फिर 'भस्मक' जैसे रोगकी शांतिके लिये उपयुक्त मोर पर्याप्त भोजनको तो बात ही दूर है।
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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