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________________ समन्तभद्रका मुनिजीवन और आपत्काल २.१७ क्या क्षुधाकी वेदनासे घबराकर अथवा उससे बचनेके लिये छोड़ दूं ? क्या इन्द्रियविषयनित स्वल्प सुखके लिये उसे बलि दे दूं ? यह नहीं हो सकता । क्या क्षुधादि दुःखोंके इस प्रतिकारसे अथवा इन्द्रियविपयजनित स्वल्प सुखके अनुभव से इस देहकी स्थिति सदा एकसी श्रीर सुखरूप बनी रहेगी ? क्या फिर इस देह में क्षुधादि दुःखों का उदय नही होगा ? क्या मृत्यु नही आएगी ? यदि ऐसा कुछ नहीं है तो फिर इन क्षुधादि दुःखोंके प्रतिकार प्रादिमं गुरण ही क्या हैं ? उनसे इस देह प्रथवा देहीका उपकार ही क्या बन सकता है ? मे दुःखोंसे बचने के लिये कदापि मुनिधर्मको नहीं छोड़गा, भले ही यह देह नष्ट हो जाय, मुझे उसकी चिन्ता नहीं है, मेरा आत्मा अमर है, उसे कोई नाग नहीं कर सकता, मैंने दुःखों का स्वागत करनेके लिये मुनिधमं धारण किया था, न कि उनसे घबराने और बचनेके लिये मेरी परीक्षाका यही समय है, में मुनिधर्मको नही छोड़ गा ।" इतने में ही अंतःकरण के भीतर से एक दूसरी ग्रावाज ग्राई"समतभद्र ! तू अतंत्र प्रकार जैन शामनका उद्धार करने और उसे प्रचार देने में समर्थ है, तेरी बदौलत बहुत मे जीवोका प्रज्ञानभाव तथा मिथ्यात्व नष्ट होगा और वे सन्मार्ग मे लगेगे; यह शासनोद्धार और लोकहितका काम क्या कुछ कम धर्म है ? यदि इस शासनोद्वार और लोकहितकी दृष्टिमे ही तू कुछ समयके लिये मुनिपदको छोड़ने और अपने भोजनकी योग्य व्यवस्था द्वारा रोगको शान्त करके फिर से मुनिपद धारण कर लेवे तो इसमें कौनसी हानि है ? तेरे ज्ञान, श्रद्धान, और चारित्रके भावको तो इससे जरा भी क्षति नहीं पहुँच सकती, वह ती हरदम तेरे साथ ही रहेगा; तु पलिंगकी अपेक्षा अथवा बाह्यमें भले ही मुनि न रहे, परंतु भावों की अपेक्षा तो तेरी अवस्था मुनि जैसी ही होगी. फिर इसमें अधिक सोचने विचारनेकी बात ही क्या है ? इसे प्रापद्धर्मके पर ही स्वीकार कर; तेरी परिणति तो हमेशा लोकहितकी तरफ रही है, अब उसे * क्षुधादि दुःखोंके प्रतिकारादिविषयक आपका यह भाव 'स्वयंभू स्तोत्र' के निम्न पद्य भी प्रकट होता है क्षुदादिदु. प्रतिकारतः स्थिति नं चेन्द्रियार्थप्रभवात्पसौख्यत । ततो गुरणो नास्ति च देहदेहिनोरितीदमित्थं भगवान् व्यजिज्ञपत' ||१८||
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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