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स्वामी समन्तभद्र
१५५ मुनिअवस्थाकी ही मालूम होती है। गृहस्थाश्रममें रहते हुए और राज-काज करते हुए इस प्रकार की महापांडित्यपूर्ण और महदुच्चभावसम्पन्न मौलिक रचनाएँ नहीं बन सकतीं । इम विषयका निर्णय करनेके लिये, संपूर्ण ग्रन्थको गौरके माथ पढते हुए, पद्य नं० १६, ७६ और ११४ * को खास तौरमे ध्यानमें लाना चाहिये । १६ वें पद्यसे ही यह मालूम हो जाता है कि स्वामी संसारमे भय-भीत होने पर शरीरको लेकर ( अन्य समस्त परिग्रह छोड़कर) वीतराग भगवान्की शरणमें प्राप्त हो चुके थे, और आपका प्राचार उस समय ( ग्रन्थरचनाके समय) पवित्र, श्रेष्ठ, तथा गणधरादि-अनुष्ठित प्राचार-जमा उत्कृष्ट अथवा निर्दोप था । वह पद्य इस प्रकार है
पृतम्बनवमाचारं तन्वायातं भयाचा ।
स्वया वामेश पाया मा नतमेकाच्यशंभव ॥ इम पद्यमें ममन्तभद्रने जिस प्रकार 'पूतस्वनवमाचारं + और 'भयात् तन्वायानं' - ये अपने (मा = 'मां' पदके) दो खाम विगेपणपद दिये हैं उसी प्रकार ७६ ३ ॐ पद्यमें उन्होंने 'ध्वंसमानममानस्त्रत्राममानसं' विशेषगणके द्वारा अपनेको उल्लेखित किया है । इस विशेषणसे मालूम होता है कि ममन्तभद्रके मनमे यद्यपि त्राम उद्वेग-बिल्कुल नष्ट ( अस्त ) नहीं हुआ था-मत्तामे कुछ मौजूद जरूर था-फिर भी वह ध्वंममानके समान हो गया था, और इम लिये उनके चित्तको उद्धे जिन अथवा मंत्रस्त करनेके लिये समर्थ नहीं था । चित्तकी ऐसी स्थिति बहुत ऊँचे दर्जे पर जाकर होती है और इस लिये यह विशेषण भी समन्तभद्रके मुनिजीवनकी उत्कृष्ट स्थितिको सूचित करता है और यह बतलाता है
* यह पद्य आगे ‘भावी तीर्थकरत्व' शीर्षकके नीचे उदधृत किया गया है।
+ 'पूत: पवित्र: मु सृष्ट, अनवमः गणधराद्यनुष्ठितः प्राचार; पापकियानिवृत्तिर्यस्यामी पूनस्वनवमाचारः अतस्तं पूतस्वनतमाचारम्'-इति टीका ।
x ‘भयात् संसारभीतेः । तन्वा शरीरेण ( सह ) आयातं आगनं ।' * यह पूरा पद्य इस प्रकार है
स्वसमान समानन्द्या भासमान स माऽनघ । ध्वंसमानसमानस्तत्रासमानसमानतम् ।। ७६ ॥