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datefferent एक सटिप्पण प्रति
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होना जान पड़ता है और इसलिये जो बादमें भाष्यके व्याख्याक्रमानुसार सूत्रके सुधारको सूचित करता है ।
(७) दिगम्बर सम्प्रदाय में जो सूत्र श्वेताम्बरीय मान्यताकी अपेक्षा कमती - बढ़ती रूपमें माने जाते हैं अथवा माने ही नहीं जाते उनका उल्लेख करते हुए टिप्पर में कहीं-कहीं अपशब्दों का प्रयोग भी किया गया है । अर्थात् प्राचीन दिगम्बराचार्योको 'पाखंडी' तथा 'जडबुद्धि' तक कहा गया है । यथा
ननु- ब्रह्मोत्तर- कापिष्ठ- महाशुक्र- सहस्रारेषु नेंद्रोत्पत्तिरिति परवादिमतमेतावतैव सत्याभिमतमिति कश्चिन्मा व यात्किल पाखंडिनः स्वकपोलकल्पित बुद्धचैव षोडश कल्पान्प्राहुः, नोचेद्दशा पंचपोडशविकल्पा इत्येव स्पष्ट सूत्रकारोऽसूत्रयिष्यद्यथाखंडनीयो निन्हवः ।"
'केचिज्जडा : 'प्रहाणामेकं' इत्यादि मूलसूत्रान्यपि न मन्यन्ते चन्द्राafari मिथः स्थितिभेदोस्तीत्यपि न पश्यन्ति ।"
इससे भी अधिक अपशब्दोंका जो प्रयोग किया गया है उसका परिचय पाठकों को आगे चलकर मालूम होगा ।
(८) दसवें अध्याय के अन्त में जो पुष्पिका ( अन्तिम सन्धि ) दी है व इस प्रकार है
" इति तत्वार्थावगमेर्हत्प्रचनसंग्रहे मोक्षप्ररूपणाध्यायो दशमः । ०२२५ पर्यंतमादितः । समाप्तं चैतदुमाम्वातिवाचकस्य प्रकरणापचशती कर्तु : कृतिस्तत्त्वार्थाधिगमप्रकरणं ॥ "
इसमें मूल तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की ग्राद्यन्तकारिकाओं सहित ग्रथसंख्या २२५ श्लोकपरिमाण दी है और उसके रचयिता उमास्वातिको श्वेताम्बरीय मान्यतानुमार पांचमी प्रकरणोंका अथवा 'प्रकरणपंचशती का कर्ता सूचित किया है, जिनमें से अथवा जिसका एक प्रकरण यह 'तत्त्वार्थाधिगमसूत्र' है ।
(e) उक्त पुष्पिकाके अनन्तर ६ पद्य दिये हैं, जो टिप्पणकारकी खुदकी कृति हैं । उनमें प्रथम सात पद्य दुर्वादापहारके रूप में हैं और शेष दो पद्य अंतिम मंगल तथा टिप्परकार के नामसूचनको लिये हुए हैं । इन पिछले पद्योके प्रत्येक चरणके दूसरे अक्षरको क्रमशः मिलाकर रखनेमे "रत्नसिंहो जिनं वंदे" ऐसा वाक्य उपलब्ध होता है, और इसीको टिप्परणमे " इत्यन्तिमगाथाद्वय रहस्यं "