________________
११८
जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश
पदके द्वारा पिछले दोनों गाथा - पद्योंका रहस्य सूचित किया है । वे दोनों पद्य इस प्रकार हैं
सुरनरनिकरनिषेव्यो । नूनपयोदप्रभारुचिरदेहः ।
सिंधुनिराजो | महोदयं दिशति न कियद्भ्यः ||८|| वृजिनोपतापहारी । सनंदिमचिच्चकोर चंद्रात्मा ।
3
भावं भविनां तन्वन्मुदे न संजायते केपां ॥६॥ इससे स्पष्ट है कि यह टिप्पण 'रत्नसिंह' नामके किसी श्वेताम्वराचार्यका बनाया हुआ है | श्वेताम्वरसम्प्रदाय मे 'रत्नसिंह' नामके अनेक सूरि-प्राचार्य हो गये हैं, परन्तु उनमे इस टिप्पणके रचयिता कौन है, इसका ठीक पता मालूम नहीं हो सका क्योंकि 'जैनग्रंथावली' और 'जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास' जैसे ग्रंथोंमें किसी भी रत्नसिंहके नामके साथ इस टिप्पण ग्रन्थका कोई उल्लेख नही है । और इसके लिये इनके समय-सम्बन्धमं यद्यपि अभी निश्चित रूपसे कुछ भी नहीं कहा जा सकता, फिर भी उतना तो स्पष्ट है कि ये विक्रमकी १२ वी १२ वी शताब्दी के विद्वान् ग्राचार्य हेमचन्द्र के बाद हुए है, क्योंकि इन्होंने अपने एक टप्पा हमके कोपका प्रमाण 'इति हेमः' वाक्यके साथ दिया है । साथ ही, यह भी स्पष्ट ही है कि इनमें साम्प्रदायिक कूट्टरता बहुत बहीचढ़ी थी और वह सभ्यता तथा शिष्टताको भी उत्तम गई थी, जिसका कुछ अनुभव पाठकों को अगले परिचय प्राप्त हो सकेगा ।
(१०) उक्त दोनों पद्योंके पूर्व मे जो ७ पद्य दिये है और जिनके अन्त में " इति दुर्वादापहारः " लिखा है उनपर टिप्पणकारकी स्वोपज्ञ टिप्पणी भी है | यहा उनका क्रमशः टिप्पणी-महित कुछ परिचय कराया जाता है:प्रागवैतद्दक्षिणभपणगरणादास्यमानमिव मत्वा ।
त्रातं समूलचूलं स भाध्यकारश्चिरं जीयात ॥१॥
टिप्प - "दक्षिण सरलादाराविति हैमः । श्रदक्षिणा असरला:
* इन दोनों पद्योंके अन्त में "श्रेयोऽस्तु" ऐसा श्राशीर्वाक्य दिया हुआ है । + "दक्षिणे सरलादारी" यह पाठ अमरकोशका है, उसे 'इति हैमः' लिखकर हेमचन्द्राचार्य कोषका प्रकट करना टिप्परकारकी विचित्र नीतिको सूचित करता है ।