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तत्त्वार्थाधिगमसूत्रकी एक सटिप्पण प्रति ११६ स्ववचनस्यैव पक्षपातमलिना इति यावत्त एव भषणाः कुकुरास्तेषां गणरादास्यमानं ग्रहिष्यमानं स्वायत्तीकरिष्यमाणमिति यावत्तथाभूतमिवैतत्तत्त्वार्थशास्त्रं प्रागेव पूर्वमेव मत्वा ज्ञात्वा येनेति शेषः सह मूलचूलाभ्यामिति समूलचूलं जातं रक्षितं स कश्चिद् भाष्यकारो भाष्यकर्ता चिरं दीर्घ जीयाजयं गम्यादित्याशीर्वचोस्माकं लेखकानां निर्मलग्रंथरक्षकाय प्राग्यचनचौरिकायामशक्यायेति ।"
भावार्थ-जिसने इस नत्त्वार्थशास्त्रको अपने ही वचनके पक्षपातमे मलिन अनुदार कुत्तोंके समूहों-द्वारा ग्रहीप्यमान-जमा जानकर--यह देखकर कि ऐसी कुना-प्रकृतिके विद्वान् लोग इसे अपना अथवा अपने सम्प्रदायका बनाने वाले हैं--पहले ही इम शास्त्रकी मूल-चूल-महित रक्षा की है-इमे ज्योंका त्यों श्वेताम्बर-मम्प्रदाय के उमाम्बानिकी कृतिरूप में ही कायम रक्खा है--वह भाष्यकार ( जिसका नाम मालूम नहीं* ) चिरजीव होवे--चिरकाल तक जयको प्राप्त होवे----ोमा हम टिप्पगाकार-जैसे लेखकोंका उस निर्मल ग्रन्थके रक्षक तथा प्राचीन-वचनोकी चोरीमे असमर्थ के प्रति ग्रागीर्वाद है।
पूर्वाचार्यकृतरपि कविचौरः किंचिदात्मसान्कृत्वा ।
व्याख्यान यति नवीनं न तत्समः कश्चिदपि पिशुनः ।।२।। टिप्प-"अथ ये कंचन दुरात्मान: सूत्रवचन चौराः स्वमनीपया
** क्योंकि टिप्पणकारने भाग्यकारका नाम न देकर उसके लिये 'स कश्चिन' ( वह कोर्ट ) शब्दोका प्रयोग किया है, जबकि मूलमूत्रकारका नाम उमास्वानि कई स्थानों पर स्पष्टरूपमे दिया है, इसम माफ़ ध्वनित होता है कि टिप्पणकारको भाप्यकार का नाम मालूम नहीं था और वह उसे मूलसूत्रकारसे भिन्न समझता था । भाग्यकारका 'निर्मलग्रन्थ रक्षकाय' विशेपणके साथ 'प्राग्वचनचौरिकायाम शवयाय' विशेषगा भी इसी बातको सूचित करता है। इसके 'प्राग्वचन' का वाच्य तत्त्वार्थसूत्र जान पड़ता है, भाष्यकारने उसे चुराकर अपना नही बनाया-वह अपनी मनःपरिणतिके कारण ऐसा करनेके लिये असमर्थ था-यही प्राशय यहाँ व्यक्त किया गया है। अन्यथा, उमास्वातिके लिये इस विशेषणकी कोई जरूरत नहीं थी और न कोई संगति ही ठीक बैठती है।