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१२० जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश यथास्थानं यथेप्सितपाठप्रक्षेपं प्रदर्श्य स्वपरहितापगम कथंचित् कुर्वन्ति तद्वाक्य-शुश्रूषापरिहारायेदमुच्यते- पूर्वाचार्यकृतेरपीत्यादि । ततः परं वादविह्वलानां सद्वक्तृवचोप्यमन्यमानानां वाक्यात्संशयेभ्यः सुज्ञेभ्यो निरीहतया सिद्धांतेतरशास्त्रस्मयापनोदकमेवं ब्रमः ।"
भावार्थ-सूत्रवचनोंको चुरानेवाले जो कोई दुरात्मा अपनी बुद्धिमे यथास्थान यथेच्छ पाठप्रक्षेपको दिखलाकर कथंचित् अपने तथा दूसरोंके हितका लोप करते हैं उनके वाक्योंके सुननेका निषेध करनेके लिये 'पूर्वाचार्यकृतेरपीत्यादि' पद्य कहा जाता है, जिसका प्राशय यह है कि 'जो कविचोर पूर्वाचार्यकी कृतिमेसे कुछ भी अपनाकर (चुराकर ) उसे नवीनरूपमें व्याख्यान करना है-नवीन प्रगट करता है उसके समान दूसरा कोई भी नीच अथवा धूर्त नही है।'
इसके बाद जो सुधीजन वाद-विह्वलों तथा सद्वक्ताके वचनको भी न माननेवालोंके कथनसे संशयमें पड़े हुए हैं उन्हें लक्ष्य करके सिद्धान्तमे भित्र मास्त्रस्मयको दूर करनेके लिये कहते हैं
सुज्ञाः शृणुत निरीहाश्चेदाहो पर गृहीतमेवेदं ।
सति जिनसमयसमुद्रे तदेकदेशेन किमने न ||३|| टिप्प०-शृणुत भोः कतिचिद्विज्ञाश्चेदाह। यद्यतेदं तत्त्वार्थप्रकरगा परगृहीतं परोपात्तं परनिर्मितमेवेति यायदिति भवंतः संशेरत कि जातमेतावता वर्य त्वस्मिन्नेव कृतादरा न वर्नामह लघीयः मरमीव, यस्मादद्यापि जिनेन्द्रोक्तांगोपांगाद्यागमसमुद्रा गर्जतीति हेतोः तदकदेशेनानेन किं ? न किंचिदित्यर्थः । ईदृशानि भूयांन्येव प्रकरणानि संति केषु केषु रिरिसां करिष्याम इति ।" ___ भावार्थ-भोः कतिपय विद्वानों ! मुनों, यद्यपि यह तन्वार्थप्रकरण परगृहीत है-दूमरोंके द्वारा अपनाया गया है-परनिर्मित ही है, यहां तक पाप संशय करते हैं; परन्तु ऐसा होनेसे ही क्या होगया ? हम तो एकमात्र इसीमें आदररूप नहीं वर्त रहे है, छोटे तालाबकी तरह । क्योंकि आज भी जिनेन्द्रोक्त अंगोपांगादि प्रागमसमुद्र गर्ज रहे हैं, इस कारण उस समुद्रके एक देशरूप इस प्रकरणमे-उसके जाने रहनेमे-क्या नतीजा है ? कुछ भी नहीं । इस प्रकारके बहुतसे प्रकरण विद्यमान है, हम किन किनमें रमनेकी इच्छा करेंगे?