________________ ~ ~ ~ ~~~. . .. . 370 जैनसाहित्य और इतिहसपर विशद प्रकाश सेवित-शिखरोंसे अलंकृत है, मेघपटलोंसे व्याप्त तटोंको लिये हुए है, तीर्थस्थान है और आज भी भक्ति से उल्लसितचित्त-ऋषियोंके द्वारा सब पोरसे निरन्तर अतिसेवित है / उन्होंने उस अखिल विश्वको सदा करतलस्थित स्फटिकमणिके समान युगपत् जाना था और उनके इस जानने में बाह्यकरण-चक्षुरादिक और अन्तःकरण-मन ये अलग-अलग तथा दोनों मिलकर भी न तो कोई बाधा उत्पन्न करते थे और न किसी प्रकारका उपकार ही सम्पन्न करते थे। (23) पार्श्व:जिन महामना थे, वे वरीके वशवर्ती-कमठशत्रुके इशारेपर नाचनेवाले-उन भयंकर मेघोंसे उपद्रवित होनेपर भी अपने योगसे ( शुक्लध्यानसे ) चलायमान नहीं हुए थे, जो नीले-श्यामवर्ण के धारक, इन्द्रधनुष तथा विद्यु द्-गुणोंसे युक्त और भयंकर वज्र वायु तथा वर्षाको चारों ओर बखेरनेवाले थे / इस उपसर्गके समय धरण नागने उन्हें अपने बृहत्फरणामोंके मण्डलरूप मण्डपसे वेष्ठित किया था और वे अपने योगरूप खङ्गवी तीक्ष्ण धारसे दुर्जय मोहशत्रुको जीत कर उस पार्हन्त्यपदको प्राप्त हुए थे जो अचिन्त्य है, अद्भुत है और त्रिलोककी सातिशय-पूजाका स्थान है / उन्हें विधूतकल्मष (घानिकर्म-चतुष्टयरूप पापमलसे रहित), शमोपदेशक ( मोक्षमार्गके उपदेष्टा ) और ईश्वर (सकल-लोकप्रभु ) के रूप में देखकर वे वनबासी तपम्वी भी शरण में प्राप्त हुए थे जो अपने श्रमको-पंचाग्नि-साधनादिरूप प्रयासको - विफल ममझ गये थे और भगवान पार्श्व-जैसे विधूतकल्मष ईश्वर होने की इच्छा रखते थे / पार्श्वप्रभु ममग्रबुद्धि थे, सच्ची विद्यानों तथा तपस्यायों के प्रणेता थे, उपकुलरूप प्राकागके चन्द्रमा थे और उन्होंने मिथ्यामागोंकी दृष्टियोसे उत्पन्न होनेवाले विभ्रमोंको विनष्ट किया था। (24) वीर-जिन अपनी गुण-समुत्थ-निर्मलकीर्ति अथवा दिव्यवाणीमे पृथ्वी (समवसरणभूमि) पर उसी प्रकार शोभाको प्राप्त हुए थे जिस प्रकार कि चन्द्रमा प्राकाशमें नक्षत्र सभास्थित उस प्रभासे शोभता है जो सब प्रोरसे धवल है / उनका शासनविभव कलिकाल में भी जयको प्राप्त है और उसकी वे निर्दोष सानु (गणधरा दिकदेव) स्तुति करते है जिन्होंने अपने ज्ञानादि-तेजसे पासन-विभुत्रोंको-लोकके प्रसिद्ध नायकोंको-निस्तेज किया है। उनका