________________ समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्रं 366 (ज्ञानावरणादि कर्मोको) भस्मीभूत करके संसारमें न पाये जानेवाले सौख्यकोपरम अतीन्द्रिय मोक्ष-सौख्यको-प्राप्त हुए थे। ' (21) नमि-जिनमें विभवकिरणोंके साथ केवलज्ञान-ज्योतिके प्रकाशित होनेपर अन्यमती-एकान्तवादी-जन उसी प्रकार हतप्रभ हुए ये जिस प्रकार कि निर्मल सूर्यके सामने खद्योत (जूगनू) होते हैं। उनके द्वारा प्रतिपादित अनेकान्तात्मक तत्वका गंभीर रूप एक ही कारिका 'विधेयं वार्य' इत्यादिमें इतने अच्छे ढंगसे सूत्ररूपमें दिया है कि उस पर हजारों-लाखों श्लोकोंकी व्याख्या लिखो जा सकती है / उन्होंने परम करुणाभावसे सम्पन्न होकर अहिंसा-परमब्रह्मकी सिद्धि के लियेब ह्याम्यन्तर दोनों प्रकारके परिग्रहका परित्याग कर उस प्राश्रविधिको ग्रहण किया था जिसमें प्ररणुमात्र भी प्रारम्भ नहीं है। क्योंकि जहाँ प्रणुमात्र भी प्रारम्भ होता है वहीं अहिंसाका वास नहीं मथवा पूर्णतः वास नहीं बनता / जो माधु यथाजातलिङ्गके विरोधी विकृत वेपों और उपधियों में रत है, उन्होने वस्तुत: बाह्याभ्यन्तर परिग्रहको नहीं छोड़ा हैऔर इसलिए ऐसोंसे उस परमब्रह्मकी सिद्धि भी नहीं बन सकती / उनका भाभूषण वेष तथा व्यवधान ( वस्त्र-प्रावरणादि) से रहित और इन्द्रियोंकी शान्तताको लिये हुए (नग्न दिगम्बर ) शरीर काम-क्रोध और मोह पर विजयका सूचक या (22) अरिष्टनेमि-जिनने परमयोगाग्निसे कल्मषन्धनको-ज्ञानावरगादिरूप कर्मकाष्ठको-भस्म किया था और मकल पदार्थोको जाना था। वे हरिवंशकेतु थे, विकसित कमलदल के समान दीर्घनेत्रके धारक थे, और निर्दोष विनय तथा दमतीर्थ के नायक हुए है / उनके चरणयुगल त्रिदशेन्द्र-वन्दित थे / उनके चरणयुगलको दोनों लोकनायकों गरुडध्वज ( नारायण ) और हलघर (बलभद्र ) ने, जो स्वजनभक्ति से मुदितहृदय थे मौर मं तथा विनयके रसिक थे, बन्धुजनों के साथ बार-बार प्रणाम किया है। गरुडध्वजका दीप्तिमण्डल दुनिमद्रथांग (सुदर्शन चक्र) रूप रविबिम्बकी किरणों में जटिल था और शरीर नीले कमलदलोंकी राशिके प्रयया सजलमेघके समान श्यामवर्ण था। इन्द्रद्वारा लिखे गये नेमिजिनके लक्षणों (चिह्नों) को वह लोकप्रसिद्ध ऊर्जयन्तगिरि (गिरनार ) पर्वत धारण करता है जो पृथ्वीका ककुद है, विद्याधरोंकी स्त्रियोंसे