SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 426
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 422 . जैन साहित्य और इतिहासपर विषद प्रकाश यहां मध्य पोर मन्त्यके पोंसे यह भी मालूम होता है कि अन्य वीरजिनका स्तोत्र होते हुए भी 'युवरयनुशासन' नामको लिये हुए है प्रर्यात् इसके दो नाम है-एक 'वीरजिनस्तोत्र' और दूसरा 'युक्त्यनुशासन' / समन्तभद्रके अन्य उपलन्ध ग्रन्थ भी दो-दो नामोंको लिय हुए है; जैसा कि मैने 'स्वयम्भूस्तोत्र' की प्रस्तावनामें व्यक्त किया है पर स्वयम्भूस्तोत्रादि अन्य चार प्रन्योंमें ग्रन्थका पहला नाम प्रथम पद्य द्वारा और दूसरा नाम अन्तिम पच द्वारा सूचित किया गया है और यहां मादि-मन्तके दोनों ही पद्यों में एक ही नामकी सूचना की गई है; तब यह प्रश्न पैदा होता है कि क्या 'युक्त्यनुशासन' यह नाम बारको श्री विद्यानन्द या दूसरे किसी पाचायके द्वारा दिया गया है अथवा अन्यके अन्य किसी पद्यसे इसकी भी उपलब्धि होती है ? श्रीविद्यानन्दाचार्य के द्वारा यह नाम दिया हुमा मालूम नहीं होता; क्योकि वे टीकाके प्रादिम मगल पद्यमें 'युक्त्यनुशासन'का जयघोष करते हुए उसे स्पष्ट रूपमें समन्तभद्रकृत बतला रहे है और भन्निम पद्यमें यह साफ घोषणा कर रहे है कि स्वामी समन्तभद्रने अखिल तत्त्वको समीक्षा करके श्रीवीरजिनेन्द्र के निर्मल गुग्गों के स्तोत्ररूपमें यह 'युक्त्यनुशासन' ग्रन्थ कहा है। ऐसी स्थितिमें उनके द्वारा इस नामकरण की कोई कपना नहीं की जा सकती। इसके सिवाय, शकसंवत् 705 ( वि० सं०८४0) में हरिवंशपुगगाको बनाकर समाप्त करनेवाले श्रीजिनसेनाचार्यने 'जीवमिद्धिविधायीह कुनयुक्त्यनुशासनम्, वचः समन्तभद्रस्य' इन पदोंके द्वारा बहुत स्पष्ट शब्दों में समन्तभद्रको 'जीवसिद्धि' ग्रन्थका विधाता और 'युक्त्यनुशासन' का कर्ता बतलाया है। इसमे भी यह साफ़ जाना जाता है कि 'युक्त्यनुशासन' नाम श्रीविद्यानन्द अथवा श्रीजिनसेनके द्वारा बादको दिया हुमा नाम नहीं है, बल्कि ग्रन्थकार-द्वारा स्वयंका ही विनियोजित नाम है। अब देखना यह है कि क्या ग्रन्यके किमी दूसरे पक्षसे इस नामकी कोई सूचना मिलती है ? सूचना जार मिलती है / स्वामीजीने स्वयं पन्धको 18 वीं कारिकामें 'युक्रभुशासन' का निम्न प्रकारले उल्लेख किया है "ष्टिागमाभ्यामविरुद्धमर्थप्ररूपणं युक्त्यनुशासन ते।" इसमें बतलाया है कि 'प्रत्यक्ष मोर प्रागमसे भविरोधरूप जो भका पर्षमे प्ररूपण है उसे ज गासन' कहते है और वही ( हे वीर भगवान् ! ) मापको
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy