________________ समन्तभद्रका युक्त्यनुशासन 423 AN अभिमत है-अभीष्ट है / " अन्यका सारा पर्यप्राण युक्त्यनुशासनके इलक्षणसे ललित है, इसीसे उसके सारे शरीरका निर्माण हुमा है और इसलिये 'युक्त्यनुशासन' यह नाम ग्रन्थकी प्रकृतिके अनुरूप उसका प्रमुख नाम है। चुनांचे ग्रंथ. कार-महोदय, 63 वी कारिकामें ग्रन्यके निर्माणका उद्देश्य व्यक्त करते हुए, लिखते हैं कि 'हे वीर भगवन् ! यह स्तोत्र आपके प्रति रागभावको अथवा दूमरों के प्रति द्वेषभावको लेकर नहीं रचा गया है, बल्कि जो लोग न्याय-अन्यायको पहचानना चाहते हैं और किसी प्रकृतविषयके गुण-दोषोंको जानने की जिनकी इच्छा है उनके लिये यह रितान्वेषणके उपायस्वरूप प्रापकी गुण-कथाके साथ कहा गया है / इसमे माफ जाना जाता है कि ग्रन्थका प्रधान लक्ष्य भूने-भटके जीवोंको न्याय-अन्याय, गुग-दोष और हित-प्रहितका विवेक कगकर उन्हें वीरजिन-प्रदर्शित सन्मार्गपर लगाना है और वह यक्तिोंके अनुगामन-द्वारा ही साध्य होता है. प्रतः ग्रन्थका मूलत: प्रधान नाम 'युक्त्यनुगासन ठीक जान पड़ता है। यही वजह है कि वह इसी नाम से अधिक प्रसिद्धि को प्राप्त हुप्रा है। 'वीजनस्तोत्र' यह उसका दूसरा नाम है, जो स्तुनिपात्रकी दृष्टि में है, जिसका और जिसके शासनका महत्व इम अन्यमें रूपापित किया गया है। ग्रन्थके मध्य में प्रयुक्त हुए किसी पदपरने भी ग्रन्थ का नाम रम्बने की प्रथा है, जिसका एक उदाहरण धनंजय कविका व्यापहार' स्तोत्र है, जो कि न नो 'विपा रहार' शब्दसे प्रारम्भ होता है और न प्रादि-प्रन्तके पद्योंमें हो उसके 'विपापहार' नामकी कोई मुचना की गई है, फिर भी मध्य में प्रयुक्त हुए 'विषापहारं मरिणमौषधानि' इत्यादि वारसगरमे वह विपापहार' नामको धारण करता है। उसी तरह यह स्तोत्र भी 'युक्पनुशासन' नामको धारण करता हुमा जान पड़ता है। इस तरह अन्य के दोनों ही नाम युक्तियुक्त है और वे ग्रन्थकार-द्वारा ही प्रयुक्त हुए सिद्ध होते है / जिसे जमी कचि हो उसके मनुमार वह इन दोनों नामोंमेंमे किसीका भी उपयोग कर सकता है / ग्रन्थका संघिम परिचय और महत्व यह अन्य उन प्राप्तों अथवा 'सवंश' कहे जानेवालोंकी परीक्षाके बाद रचा गया है, जिनके पामम किसी-न-किसी रूपमें उपलब्ध है और जिनमें बुद्ध-कपि.